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आचार्य हरिभद्र ने षोडशक प्रकरण में कहा है कि मात्र वाक्यार्थ विषयक कोठार में रहे हुए बीज के समान प्राथमिक ज्ञान श्रुतज्ञान कहलाता है। यह ज्ञान मिथ्याभिनिवेश से रहित होता है, क्योंकि यदि इसमें मिथ्याविकल्प या कदाग्रह हो, तो यह अज्ञान बन जाता है। संक्षेप में श्रुतज्ञान ज्ञान का प्राथमिक स्तर है।
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चिन्ताज्ञान
उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / १७१
उ. यशोविजयजी ने श्रुतज्ञान की चार विशेषताएँ बताई हैं
सर्वशास्त्रानुगत प्रमाणनयवर्जित
पूर्वोक्त श्रुतज्ञान के पश्चात् चिन्ताज्ञान का क्रम है। उ. यशोविजयजी चिन्ताज्ञान का वर्णन करते हुए कहते हैं कि जो ज्ञान महावाक्यार्थ से उत्पन्न हुआ हो, तथा सैंकड़ों सूक्ष्म युक्तियों से गर्भित हो और पानी में जैसे तेल का बिंदु फैल जाता है, उसी प्रकार जो ज्ञान चारो और व्याप्त होता है, अर्थात् विस्तृत होता है, उसे चिंताज्ञान कहते हैं । ।
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कोठार में रहे हुए बीज के समान अविनष्ट
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परस्पर विभिन्न विषयक पदार्थों में गति नहीं करने वाला
वस्तुतः यह चिन्तनपरक विमर्शात्मक ज्ञान है। यह विवेचनात्मक व्यापक ज्ञान है और नयप्रमाण से युक्त होता है ।
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सूत्र की व्याख्या चार प्रकार से की जाती है
१. पदार्थ २. वाक्यार्थ ३. महावाक्यार्थ ४. ऐदंपर्यार्थ । सूत्र की व्याख्या की इन चार विधियों में से महावाक्यार्थ से जो बोध होता है, वह चिन्ताज्ञान
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श्रुतं सर्वानुगाद्वाक्यात्प्रमाणनयवर्जितात् ।।१०।।
उत्पन्नमविनष्टं च बीजं कोष्ठगतं यथा ।
परस्परविभिन्नोक्तपदार्थ विषयं तु न ||११|| - देशनाद्वात्रिंशिका उ. यशोविजयजी वाक्यार्थमात्रविषयं कोष्ठगकगतबीजसन्निभं ज्ञानम्
श्रुतमयमिह विज्ञेयं मिथ्याभिनिवेशरहितमलम् ।।११।। - षोडशक - हरिभद्रसूरि
(अ) महावाक्यार्थजंयत्तु सूक्ष्मयुक्तिशतान्वितम्
तद्वितीये जले तैल-बिन्दुरीत्या प्रसृत्वरम् ।। ६६ ।। अध्यात्मोपनिषद् - उ. यशोविजयजी (ब) देशनाद्वात्रिंशिका - ( २ / १२ ) -द्वान्निशद् द्वात्रिंशिका - उ. यशोविजयजी ( स ) षोडशक - ( ११ / ८ ) - हरिभद्रसूरि
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