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________________ १७०/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री यह माना है कि श्रुतज्ञान में नय निक्षेप प्रमाण की दृष्टि से किसी प्रकार का चिन्तन नहीं होता है। अतः उनका कथन है कि नय और प्रमाण से रहित जो सहज बोध है, वह श्रुतज्ञान कहलाता है। उ. यशोविजयजी की दृष्टि में यह प्राथमिक बोध है। उदाहरण के रूप में समावायांग सूत्र का 'एगे आया'- यह पद लें, तो श्रुतज्ञान की अपेक्षा से इसका अर्थ होगा ‘आत्मा एक है'। यह कथन आचारांगसूत्र के 'पुढो जीवा पुढो सत्ता', अर्थात् 'प्रत्येक जीव की सत्ता अलग-अलग है' का विरोधी वचन है। श्रुतज्ञान में इस विरोध को उठाने की तथा उसके समाधान की शक्ति नहीं है। विरोध तथा समाधान दूसरे चिंताज्ञान से ही संभव हैं, क्योंकि चिंताज्ञान में प्रमाणनय आदि की अपेक्षा से विचार किया जाता है। उस अपेक्षा से इस विरोध का समाहार इस प्रकार होगा कि संग्रहनय की दृष्टि से आत्मद्रव्य एक है, किन्तु व्यवहारनय की दृष्टि से प्रत्येक जीव की स्वतंत्र सत्ता है। दूसरा उदाहरण किसी जीव की हिंसा नहीं करना चाहिए और श्रावक को जिनमंदिर बनाना चाहिए- दोनों ही शास्त्रवचन हैं। इनका विरोध और उसके समाधान का प्रयत्न श्रुतज्ञान में नहीं हैं, क्योंकि श्रुतज्ञान विमर्शात्मक नहीं है। हिंसा का त्याग और जिनमंदिर के निर्माण की कर्तव्यता दोनों में जो विरोध है, उस विरोध का समाधान श्रुतज्ञान में न होकर ज्ञान के अगले स्तर (चरण) चिन्ताज्ञान में ही संभव है, क्योंकि चिन्ताज्ञान शास्त्रवचन के अर्थ ग्रहण में . नय-प्रमाण आदि की दृष्टि से विचार करता है। श्रुतज्ञान की विशेषता यह है कि वह पदार्थ का बोध करा देता है और इस प्रकार परिपूर्ण अर्थबोध का कारण भी बनता है, लेकिन श्रुतज्ञान की प्राप्ति के बाद ऊहापोह रूप नय प्रमाण आदि से चिंताज्ञान नहीं प्रकट हो, तब तक उस श्रुतज्ञान को सुरक्षित रखना आवश्यक हैं, क्योंकि श्रुतज्ञान ही अगर नष्ट हो जाएगा, तो तर्क वितर्क रूप विचारणा किसकी होगी? जो श्रुतज्ञान चिंताज्ञान का उत्पादक नहीं बने और नष्ट हो जाए, उस श्रुतज्ञान का महत्त्व ही क्या? __ पानी भरने के लिए घट खरीद कर लाएं और उसमें पानी भरा ही नहीं उसके पूर्व ही वह फूट गया, तो उस घड़े का लाना भी नहीं लाने के समान है। कोठार में रहे हुए बीज की तरह श्रुतज्ञान को सुरक्षित भी रहना चाहिए, तो ही उससे चिंताज्ञान संभव हो सकता है। जैसे कोठार में रहा हुआ बीज सुरक्षित रहे, तो ही आगे वह अंकुरित हो सकता है। गुरुभक्ति, विधिपरायणता, यथाशक्ति व्रतों का पालन बहुमानगर्भित श्रवण आदि से प्राप्त श्रुतज्ञान प्रायः सुरक्षित रहता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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