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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ १६६
ज्ञान का संक्षिप्त वर्णन किया गया है। अब ज्ञानयोग के सदर्भ में उ. यशोविजयजी ने ज्ञान के जो प्रकार बताए हैं, उनका वर्णन किया जा रहा है।
उपाध्याय यशोविजयजी ने ज्ञान के निम्न तीन प्रकार बताएं हैं- १. श्रुतज्ञान २. चिन्ताज्ञान ३. भावनाज्ञान। ७६
वस्तुतः ये तीनों ज्ञान के प्रकार की अपेक्षा ज्ञान के स्तर माने जाते हैं, क्योंकि इन तीनों में ज्ञान क्रमशः विशुद्धि को प्राप्त होता है और इस प्रकार ये एक-दूसरे की अपेक्षा उच्च स्तर के ज्ञान हैं।
उ. यशोविजयजी ने ज्ञान के इन तीन स्तरों की जो चर्चा की है, वैसी ही चर्चा उनसे पूर्व आचार्य हरिभद्रसरि ने षोडशक में भी की। इस प्रकार यह कह सकते हैं कि ज्ञान के तीन स्तरों की यह चर्चा आ. हरिभद्रसूरि से लेकर उ. यशोविजयजी के काल तक चलती रही। ज्ञान के इन तीन स्तरों का क्रमशः विस्तारपूर्वक वर्णन निम्न प्रकार से है। श्रुतज्ञान -
___ ज्ञान के तीन स्तरों में श्रुतज्ञान प्रथम स्तर है। उ. यशोविजयजी ने इस ज्ञान को भंडार में रखे हुए अनाज के दानों के समान माना है। जिस प्रकार भंडार में रखे हुए अनाज के दानों में उगने की शक्ति रही हुई है, किन्तु जब तक वे भंडार में रहते हैं, तब तक उनकी यह शक्ति अभिव्यक्त नहीं होती है। चिन्तन, विमर्श और अनुभूति का अभाव होता है। उदाहरण के रूप में 'सव्वे जीवा न हंतव्वा' इस आगम-वचन का श्रुतज्ञानी की दृष्टि में मात्र इतना ही अर्थ है कि किसी भी जीव की हिंसा नहीं करना चाहिए। श्रुतज्ञान आगम वचनों का मात्र शाब्दिक अर्थ ही जानता है, उसका फलितार्थ नहीं जानता। चूंकि इस ज्ञान में चिन्तन अथवा विमर्श का अभाव है, इसलिए यह ज्ञान न तो उसके फलितार्थ को जानता है और न उसके अर्थ निर्धारण में विभिन्न अपेक्षाओं अर्थात् नय-निक्षेप का प्रयोग करता है। श्रुतज्ञान की दृष्टि से 'सब्वे जीवा न हंतव्वा', अथवा 'सव्वे जीवा वि इच्छंति', जीविंउ न मरिज्जिउं, पाणवहो न कायब्बो, आदि वाक्यों का सामान्य अर्थ हिंसा नहीं करना तक ही सीमित है; इसलिए उ. यशोविजयजी ने
२७६. त्रिविधं ज्ञानमारव्यातं, श्रुतं चिन्ता च भावना
आद्यं कोष्ठगबीजाभं, वाक्यार्थविषयं मतम् ।।६५ । अध्यात्मोपनिषद् - उ. यशोविजयजी
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