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________________ १६८/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री ५. केवलज्ञाना२७५ इनमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष ज्ञान है और शेष तीन प्रत्यक्ष ज्ञान हैं। जिसके द्वारा तत्त्व का यथार्थ स्वरूप जाना जाए, उसे ज्ञान कहते हैं।। 'ज्ञायते परिच्छिद्यते वस्त्वनेति ज्ञानम्', अर्थात् जानना ज्ञान है, या जिसके द्वारा जाना जाए, उसे ज्ञान कहते हैं।। सारांश यह है कि आत्मा को ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय अथवा क्षयोपशम से जो तत्त्वबोध होता है, वही ज्ञान कहलाता है। ज्ञानावरणीय कर्म के सम्पूर्ण क्षय से होने वाला ज्ञान 'केवलज्ञान' क्षायिक है और क्षयोपशम से होने वाले शेष चार ज्ञान क्षायोपशमिक हैं। जो ज्ञान पाँच इन्द्रियों और मन के द्वारा उत्पन्न हो, उसे मतिज्ञान कहते हैं।। मतिज्ञान को परोक्ष ज्ञान कहा गया है, क्योंकि जिस ज्ञान के होने में इन्द्रिय-मन आदि बाह्य साधनों की आवश्यकता पड़ती है, वह ज्ञान परोक्ष कहलाता है। परः+अक्ष (आत्मा)- आत्मा के सिवाय पर की सहायता से प्राप्त ज्ञान। मतिज्ञान श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित-दो प्रकार का होता है। मतिज्ञानपूर्वक श्रुत- मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान होता है, अर्थात् किसी भी शब्द का श्रवण करने पर वाच्य-वाचकभाव संबंध के आधार से अर्थ की जो उपलब्धि होती है, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान भी परोक्ष होता है। मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान ये दोनों ज्ञान सम्यक् ज्ञान या मिथ्याज्ञान रूप में न्यूनाधिक मात्रा में . समस्त संसारी जीवों में रहते हैं। अवधिज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना केवल आत्मा द्वारा रूपी (मूर्त) पदार्थों का प्रत्यक्ष करने वाला ज्ञान है। यह ज्ञान द्रव्यक्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा मर्यादा लिए हुए होता है, अतः अवधिज्ञान कहलाता है। अन्य परंपरा में इसे अतीन्द्रिय ज्ञान भी कहा जाता है। संज्ञी जीवों के मन की पर्यायों को जिस ज्ञान के द्वारा जाना जाता है, उसे मनःपर्यव ज्ञान कहते हैं। इसका क्षेत्र मनुष्य क्षेत्र तक ही होता है। समस्त लोकालोक और तीनों काल के सभी पदार्थों को हाथ मे रखे हुए आँवले की तरह प्रत्यक्ष जानने की सामर्थ्य वाला केवलज्ञान होता है। यहाँ पाँचों १०५. (अ) भगवतीसूत्र श. ८,उ. २, सूत्र ३१८ (ख) स्थानांग स्थान ५, उ.उ. सूत्र ४६३ (स) नंदीसूत्र -१ (द) अनुयोगद्वारसूत्र-१ (ध) तत्वार्थसूत्र १/६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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