SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ १६७ पंचम अध्याय ज्ञानयोग की साधना ज्ञान को आत्मा का नेत्र कहा गया है। जैसे नेत्रविहीन व्यक्ति के लिए सारा संसार अंधकारमय है, उसी प्रकार ज्ञानविहीन व्यक्ति संसार के वास्तविक स्वरूप को नहीं जान पाता है। भौतिक जीवन की सफलता और आत्मिक जीवन की पूर्णता के लिए प्रथम सीढ़ी ज्ञान की प्राप्ति है। जीवन की समस्त उलझनें, अशान्ति सुख-दुःख, राग-द्वेष; इन सभी का मूलकारण ज्ञान का अभाव ही है। बिना ज्ञान के न तो जीवन सफल होता है, न ही सार्थका जो व्यक्ति अपने जीवन को सफल बनाना चाहता है, उसे ज्ञानार्जन के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए। जीवन तब ही सार्थक हो सकता है, जबकि उसकी गति, उसकी दिशा और उसका पथ सही हो और इनका सम्यक् निर्धारण ज्ञान के द्वारा ही किया जा सकता है ज्ञान के समान अन्य कोई निधि नहीं है। सूचनात्मक ज्ञान वस्तुतः 'ज्ञान' की श्रेणी में नहीं आता है। यहाँ जिस ज्ञान की चर्चा की जा रही है, वह ज्ञान आध्यात्मिक ज्ञान है और मोक्षमार्ग से जोड़ने वाला है। पिछले अध्याय में उ. यशोविजयजी की दृष्टि में ज्ञानयोग-इस विषय की अतिसंक्षिप्त विवेचना है। यहाँ ज्ञानयोग का विस्तृत विवेचन किया जा रहा है ज्ञान के विभिन्न स्तर एवं प्रकार जैनदर्शन में ज्ञान के पाँच प्रकार बताए गए हैं१. मतिज्ञान (आभिनिबोधिक ज्ञान) श्रुतज्ञान अवधिज्ञान मनःपर्यवज्ञान और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy