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१६६/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
सम्यग्दर्शन होता है, उसे अनंतानुबंधीकषाय के क्षयोपशम से प्राप्त होने वाली समता होती है, लेकिन समकिती को अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान कषाय के विशिष्ट क्षयोपशम से प्राप्त होने वाली समता नहीं होती हैं। उ. यशोविजयजी ने प्राथमिक कक्षा के साधुओं की अपेक्षा से उपर्युक्त बात कही है।
गंदे पानी में फिटकरी डालने से जैसे पानी शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार धर्मक्रिया रूपी पानी में समतारूपी फिटकरी का मिश्रण होने से वह शद्ध हो जाता है। सर्वोच्च समता को प्राप्त करना साधारण नहीं है, किंतु आध्यात्मिक मार्ग पर जिसने अपने कदम आगे बढ़ाए हैं, वे प्रबल पुरुषार्थ करके गजसुकुमाल; मेतारजमुनि, दमदन्तमुनि आदि की तरह साम्ययोग को प्राप्त कर सकते हैं।
___ साम्यभाव तो अभव्य आदि में भी हो सकता है, किंतु अभव्य आदि में साम्ययोग नहीं हो सकता है। अभव्यादि भी यथाप्रवृत्तिकरण कर सकता है। ग्रंथिदेश के समीप अवस्था में उसे श्रुतसम्यक्त्व, दीपकसम्यक्त्व और उत्कृष्ट द्रव्यचारित्र के प्रभाव से उसमें भी साम्यभाव सुलभ है, किंतु उसका साम्यभाव उसे मोक्ष से नहीं जोड़ सकता है, अर्थात् मोक्ष की ओर गति नहीं करा सकता है। योग तो उसे ही कहते हैं, जो मोक्ष से जोड़े, इसलिए अभव्य का साम्यभाव साम्ययोग नहीं कहलाता है। आ. हरिभद्रसूरि ने योगबिन्दु में पूर्वसेवारूप, अर्थात् गुरुदेवादि गुरु आदि के पूजन, सदाचार, तप, अद्वेष आदि रूप बताएं है। उनसे अपुनर्बन्धक आदि जीवों को भी साम्ययोग संभव हो सकता है, क्योंकि इनका साम्यभाव इनको मोक्ष के साथ जोड़ने में सहायक बनता है, लेकिन हेय उपादेय आदि का सम्यग्ज्ञान तथा स्वानुभूति नहीं होने के कारण इनके साम्ययोग में शुद्धि नहीं होती है।
सम्यग्दृष्टि जीव वेद्यसंवेद्यपद में रहते हैं, अर्थात् उसे हेय उपादेय की संवेदना रहती है, किंतु अप्रत्याख्यानीकषाय आदि का उदय होने से तथाविध साम्ययोग की शुद्धि नहीं होती है। यहाँ जिस साम्ययोग की चर्चा की गई है, वह तो परम मुनियों में ही होता है। वे ही इस साम्ययोगरूपी अमृत का आस्वादन करते हैं।
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