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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ १६५
व्यक्ति सिद्ध किस प्रकार होता है? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए उ. यशोविजयजी अध्यात्मसार में कहते हैं- “अन्यलिंगी आदि जो सिद्ध होते हैं, उनका आधार समता ही है। समता द्वारा रत्नत्रय के फल की प्राप्ति हो जाने से उसमें भावजैनत्व उत्पन्न होता है।" जो द्रव्य से जैन नहीं हो, किन्तु जिनके रागद्वेष से रहितता का गुण, अर्थात् साम्ययोग का गुण विकसित हो गया है, तो उनमें रत्नत्रय के फलस्वरूप भावजैनत्व प्रकट हो ही जाता है।
शीतल शद्ध पानी की झील में कोई व्यक्ति इबकी लगाए और तैरने का आनंद ले, तो उसको तीन प्रकार के लाभ होते हैं- (१) आँखों को ठंडक मिलती है और आँखें निर्मल हो जाती हैं। (२) मस्तिष्क में चढ़ी हुई गरमी दूर हो जाती है और शांति तथा शीतलता का अनुभव होता है। (३) शरीर का मल दूर हो जाता है और स्वस्थता का अनुभव होता हैं। उ. यशोविजयजी कहते हैं- “समतारूपी अमृत की झील में डुबकी लगाए, तो उसका आँखों में रहा हुआ क्रोध रूपी ताप का क्षय हो जाता है। चित्त शान्त हो जाता है तथा अविनय के कारणभूत अहंरूपी मल का नाश हो जाता
है।।२७३
बाह्य क्रियायोग साम्यभाव की प्राप्ति के लिए बताया गया हैं। जैसे कोई व्यक्ति यदि चिंतामणि रत्न को कौए को उड़ाने के लिए फेंक देता है तथा श्रेष्ठ हाथी से लकड़ियों की ढुलाई करवाता है, स्वर्ण की थाल से धूल भरकर फेंकता है, तो वह व्यक्ति मूर्ख कहलाता हैं, क्योंकि वह उन वस्तुओं का अवमूल्यन कर रहा है, उसी प्रकार बाह्य क्रियायोग को साम्ययोग का साधन बनाने के बदले यशः कीर्ति का साधन बनाकर अपने-आपको कृतार्थ माने, तो वह जीव क्रियायोग का अवमूल्यन कर रहा है। उ. यशोविजयजी कहते हैं कि ज्ञान, ध्यान, तप, शील, सम्यक्त्व से युक्त साधु उस गुण को प्राप्त नहीं कर सकता है, जिस गुण को एक समभाव से युक्त साधु प्राप्त करता है। २७७ संप्रति मुनि यशोविजयजी ने उ. यशोविजयजी की इस बात को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि समता के बिना ज्ञान ध्यान आदि से जो गुण प्राप्त होते हैं, वे निरनुबन्ध होते हैं, जबकि समता या समाधि से प्राप्त होने वाले आत्मगुण सानुबंध होने के कारण सर्वोत्कृष्ट होते हैं और वे गुण मोक्ष प्राप्ति में अति सहायक हैं। जिसे
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२७३.
दृशोस्मरविषं शुष्येत् क्रोधतापः क्षयं व्रजेत। औद्धत्यमलनाशः स्यात् समतामृतमज्जनात् ।।१४।। -समताधिकार, अध्यात्मसार -उ.
यशोविजयजी २७४. ज्ञान ध्यान तपः शील-सम्यक्त्व सहितोऽप्यहो।
तं नाप्नोतिगुणं साधुर्यमाप्नोति शमान्वितः।।५।। -शमाष्टक -ज्ञानसार - उ. यशोविजयजी
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