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________________ १६४ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री है, जिसे स्पष्ट रूप से अनुभव कर सकते हैं । २७१ समता का आस्वादन सम्पूर्ण रूप से कर सकते हैं, इसलिए समता में रमण करने वाले के लिए यहीं स्वर्ग है तथा यहीं मोक्ष हैं, प्रशम - यह आत्मा का गुण है। गुण और गुणी में अभेद होने से प्रशम भाव का साक्षात्कार ही आत्मा का साक्षात्कार है। सम्यग्दृष्टि जीव को उसका अनुभव होता है। इस साम्ययोग का आनंद आत्मा से सीधा प्रकट होता है, इसलिए यह भोगजन्य सुख की तरह पराधीन नहीं है । न इसका क्षय होता है और न ही यह दुःख से मिश्रित है । इस अपूर्व आनंद को प्राप्त करने के बाद साधक को अन्य किसी आनंद की अपेक्षा नहीं रहती है। उ. यशोविजयजी कहते हैं"समतारूपी सागर में डुबकी लगाने वाले योगी को बाह्य सुख में आनंद नहीं आता है। जिसके घर में कल्पवृक्ष प्रकट हो गया हो, वह अर्थ का इच्छुक व्यक्ति धन के लिए बाहर क्यों भटके ?” २७२ वैराग्यरति नामक ग्रंथ में कहा गया है कि परमार्थिक योगियों को मोहनीयकर्म की 'रति' नामक नोकषायरूप कर्मप्रकृति क्षीण हो जाती है तथा साम्यसुख की प्राप्ति हो जाती है। इन दो कारणों से उनको विषयभोग में रति उत्पन्न नहीं होती है। योगबिन्दु में हरिभद्रसूरि ने कहा है-"अज्ञान द्वारा परिकल्पित इष्ट अनिष्ट वस्तुओं की यथार्थता का सम्यक् बोध हो जाने से उधर का आकर्षण समाप्त हो जाता है, निस्पृहता आ जाती है, अपेक्षाएँ समाप्त हो जाती हैं और सबके प्रति जो समानता का भाव उत्पन्न होता है, उसे ही समता कहते हैं। समता रस में निमग्न होने पर उसके रागादि मल नष्ट हो जाते हैं। साम्ययोग के प्राप्त हो जाने पर व्यक्ति की वृत्ति में एक ऐसा वैशिष्ट्य उत्पन्न होता है कि वह प्राप्त ऋद्धियों, विभूतियों या चामत्कारिक शक्तियों का भी प्रयोग नहीं करता है। उसके सूक्ष्मकर्मों का क्षय होने लगता है । संसाररूपी सागर को पार करने के लिए समता नाव के समान है। शास्त्रों में सिद्ध के पन्द्रह भेद बताए गए हैं उसमें एक भेद अन्यलिंग सिद्ध का भी आता है। जैनागमों के अनुसार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय की आराधना करके जीव मोक्ष प्राप्त करता है, किंतु जो जैन नहीं है, अन्य धर्म का पालन करता है तथा सम्यग्दर्शनादि शब्दों से परिचित भी नहीं है, तो वह २७१ २७२ दूरे स्वर्गसुखं मुक्तिपदवी सा दवीयसी । मनः संनिहितं दृष्टं स्पष्टं तु समतासुखम् ।।१३।। -समताअधिकार- अध्यात्मसार Jain Education International - यशोविजयजी अन्तर्निमग्नः समतासुखाधौ, ब्राह्ये सुखे नो रतिमेति योगी अटत्यटव्यां क इवार्थलुब्धो, गृहे समुत्सर्पति कल्पवृक्षे ।।५।। -अध्यात्मोपनिषद् - उ. यशोविजयजी For Private & Personal Use Only उ. www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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