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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ १६३
होती हैं, क्योंकि व्रतधारी श्रावकों और साधुओं में क्रमशः अप्रत्याख्यानी तथा प्रत्याख्यानी चारित्रमोहनीय कर्म का प्रबल क्षयोपशम रहता है।
कर्मयोग और ज्ञानयोग इमारत के समान तथा साम्ययोग नींव के समान है। यदि नींव के बिना इमारत बनाएं, तो वह टिक नहीं सकती हैं, उसी प्रकार साम्ययोगरूपी नींव के बिना ज्ञान और क्रियारूपी इमारत की महत्ता नहीं है, इसलिए अब साम्ययोग का वर्णन किया जा रहा है।
उ. यशोविजयजी की दृष्टि में साम्ययोग प्रत्येक कार्य का कोई न कोई हेतु अवश्य होता है। यह प्राचीन कहावत है कि- 'प्रयोजनमनुद्दिश्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते', अर्थात् प्रयोजन बिना मूर्ख भी प्रवृत्ति नहीं करता है। उदाहरणार्थ व्यापार करने का हेतु धन कमाना है। माल की बिक्री तो बहुत की, लेकिन मुनाफा कुछ नहीं हुआ, तो वह व्यापार या पुरुषार्थ व्यर्थ ही कहा जाएगा। उसी प्रकार ज्ञान भी बहुत प्राप्त क्रिया तथा तप, जप, व्रत संयमादि अनेक क्रियाएँ की, किन्तु साम्ययोग को नहीं साधा, समता प्राप्त नहीं की तो सब व्यर्थ है। मोक्षमार्ग में केवलज्ञान की प्राप्ति के लिए साधने योग्य सर्वश्रेष्ठ वस्तु 'समता है। समभाव के बिना सभी क्रियाएँ वस्तुतः 'छार उपर लीपण' जैसी है। विकाररहित और शत्रु तथा मित्र पर समान, राग-द्वेष से रहित परिणाम उसे शम कहते हैं। उपाध्याय यशोविजयजी ने ज्ञानसार में कहा है कि “ध्यानरूपी वृष्टि से दयारूपी नदी में साम्य या समतारूपी उफान आने पर नदी के किनारे पर रहे हुए विकाररूपी वृक्ष जड़ से नष्ट हो जाते हैं, बह जाते हैं।"२७० कहने का तात्पर्य यह है कि एक बार जिसके जीवन में समता ने प्रवेश कर लिया है, फिर उसके हृदय से काम-क्रोधादि विकार निकल जाते हैं तथा वह विकार रहित हो जाता है। अध्यात्मज्ञान का प्रथम बीज समता है। यह संसार जन्म, जरा, मृत्यु, आधि, व्याधि जैसे दुःखों से भरपूर है। यहाँ सुख का अनुभव कैसे करें? इस प्रश्न का समाधान करते हुए उ. यशोविजयजी कहते हैं- स्वर्ग का सुख तो दूर है और मोक्ष का सुख भी बहुत दूर है, परंतु समता का सुख तो हमारे मन के भीतर ही रहा हुआ ..
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ध्यानवृष्टेर्दयानद्याः शमपूरे प्रसर्पति। विकारतीरवृक्षाणां मूलादुन्मूलनं भवेत्।।४।। -शमाष्टकम् -ज्ञानसार - उ. यशोविजयजी
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