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१६२ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
सभी योग स्वरूप से केवली अवस्था में भी उपस्थित हैं । जैसे भगवान् महावीर को केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद जघन्य से रोज एकासना रूप तप था और अंत समय में दो-दो उपवास का तप था। पंच महाव्रतस्वरूप नियम भी केवली तीर्थंकर को होते हैं। बयालीस दोषों से रहित गौचरी आदि रूप संयम भगवान में होता है। आत्मानुभवरूप स्वाध्याय भी तीर्थंकर द्वारा सर्वदा किया जाता हैं, उसी प्रकार धर्मकथारूप स्वाध्याय प्रतिदिन दो प्रहर तक होता है। दीक्षा लेते समय जीवनपर्यंत की सामायिक उच्चरते हैं, अतः प्रथम सामायिक नाम का आवश्यक होता ही है । भगवान देशना में वर्तमान उत्सर्पिणी - अवसर्पिणी में हुए चौबीसों तीर्थंकरों के नाम देहमान आदि की प्ररूपणा करते हैं। देशना के समय 'नमो तित्थस्स' कहकर सिंहासन पर बैठते हैं। तीर्थ श्रमणप्रधान संघस्वरूप भी है, इसलिए गुरुतत्त्व भी तीर्थस्वरूप है, इससे वंदन नाम का तीसरा आवश्यक भी भगवान में संगत होता है । सर्वथा पाप नहीं करने रूप मूल प्रतिक्रमण तो नियम से होता ही है। इस प्रकार चौथा प्रतिक्रमण आवश्यक भगवान में होता है। संपूर्ण रूप से देह का ममत्व छोड़ने रूप नैश्चयिक कायोत्सर्ग भगवान में सदा-सर्वदा होता है । भगवान् को सर्वसावद्य का नैश्चयिक पचक्खाण होता ही है, अतः छठवाँ पचक्खाण आवश्यक भी होता है । २६६ इस प्रकार असंग अनुष्ठान के रूप में सम्पूर्ण ज्ञानी को भी क्रियायोग रहता ही है । छाया की तरह क्रिया ज्ञान के साथ ही चलती है।
अब जिज्ञासा यह उठती है कि ज्ञान की तरह ही क्रिया भी मोक्षमार्ग में सहायक है, तो अभव्यादि जीव भी दीक्षा लेकर निरतिचार चारित्र का पालन करते हैं, तो भी उनका धर्मव्यापार योगरूप क्यों नहीं होता है? इसका कारण यह है कि उनकी क्रिया उन्हें मोक्षमार्ग पर एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा सकती है। अभव्यादि का धर्मव्यापार भावतः नहीं होने के कारण परिशुद्ध नहीं होता है। वह जो भी क्रिया करता है, पौद्गलिक सुखों की प्राप्ति के लिए ही करता है। उसके मन में मोक्ष के प्रति श्रद्धा ही नहीं होती है, इसलिए अभव्यादि की क्रिया 'क्रियाकाण्ड' कहलाती है 'क्रियायोग' नहीं कहलाती है। उनका चारित्र द्रव्यचारित्र ही कहलाता है।
अपुनर्बन्धक आदि जीवों में क्रियायोग का बीज होता है, किंतु क्रियायोग नहीं होता हैं। अविरतिधर सम्यग्दृष्टि को प्रतिक्रमण आदि क्रियायोग संभव होने पर भी क्रियायोग की शुद्धि संभव नहीं हैं, क्योंकि उन्हें चारित्रमोहनीय कर्म का विशेष उदय रहता है। क्रियायोग की शुद्धि तो पाँचवें गुणस्थानक से ही प्रारम्भ
२६६ अध्यात्मवैशारदी - अध्यात्मोपनिषद् टीका- मुनि यशोविजयजी
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