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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ १६१ लिए ज्ञान जरुरी है और जो क्रिया से नष्ट हों, ऐसे कर्मों के क्षय के लिए क्रिया उपयोगी है। इस कारण से ही सभी कमों के क्षय के लिए ज्ञान और क्रिया का समुच्चय जरूरी है। गुणों की पूर्णता प्राप्त न हो, तब तक शास्त्रोक्त क्रिया करने योग्य है। मात्र इतना ही नहीं, पूर्वगुणवाले को भी दूसरों के उपकार के लिए क्रिया करना होती है। जैसे केवलज्ञानी अगर दोषित गोचरी का उपभोग करे या निष्कारण विहार आदि नहीं करें, तो भी उनको कोई कर्मबंध नहीं होगा, किन्तु दूसरे धर्म से च्युत न हों, उन्हें धर्मश्रवण का अवसर मिलें इसलिए वे विहार करते हैं। स्वयं को केवलज्ञान प्राप्त होने पर भी वे समवसरण में गणधरों की देशना में भी लोगों की आस्था बढ़े, इसलिए वहाँ उपस्थित रहते हैं। इस प्रकार स्वयं के आवश्यक नहीं होने पर भी परोपकार के लिए केवलज्ञानी भी समयानुसार उचित प्रवृत्ति करते हैं, तो फिर जिन्हें केवलज्ञान नहीं हुआ है, ऐसे तत्त्वज्ञानी को तो नियमतः शास्त्रोक्त उचित प्रवृत्ति का आचरण करना चाहिए। उ. यशोविजयजी कहते है- "जिस तरह छद्मस्थकालीन ज्ञान और क्रिया परस्पर सहकारी है उसी तरह क्षायिकज्ञान और क्रिया भी परस्पर सहकारी है।" २६७ अंधे और पंगु के दृष्टान्त की तरह क्षायोपशमिक ज्ञान और क्षायोपशमिक सत्क्रिया परस्पर सहकारी है। कर्मनिर्जरा के लिए केवलज्ञान की तरह यथाख्यातचारित्र भी आवश्यक है। मोक्षप्राप्ति के समय मात्र केवलज्ञान या मात्र यथाख्यातचारित्र ही विद्यमान नहीं रहता है, किंतु दोनों ही विद्यमान रहते हैं, इसलिए 'ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः' कहा है, अर्थात् ज्ञान और क्रिया का परस्पर सहकार ही मोक्ष का हेतु हैं। तीर्थंकर स्वयं भी क्रिया करते हैं, इस बात को उ. यशोविजयजी ने अध्यात्मोपनिषद् में स्पष्ट किया है। "आपकी यात्रा किस प्रकार की है? इस प्रकार का प्रश्न सोमिल के द्वारा पूछने पर भगवान ने सत्, तप, नियम आदि के प्रति स्वयं की यतना को निश्चित रूप से यात्रास्वरूप बताई।" २६८ इस बात का मुनि यशोविजयजी अपनी अध्यात्मवैशारदी नामक टीका में तात्विक अर्थघटन करते हुए कहते हैं- तीर्थंकर को केवली अवस्था में तप, नियम आदि कोई भी योगसाधना कक्षा के प्रीति भक्ति और वचन अनुष्ठान के रूप में संभव नहीं है, तो भी असंग अनुष्ठान के रूप में २६७ एकं तु संयमस्थानं जिनानामवतिष्ठते।।१८।। -(अ) अध्यात्मोपनिषद् -उ. यशोविजयजी (ब) ज्ञानसार -नवाँ अष्टक ". यथाछायास्थिके ज्ञानकर्मणी सहकृत्वरे। क्षायिके अपि विज्ञेये तथैव मतिशालिभिः ।।३६ ।। -अध्यात्मोपनिषद् -उ.यशोविजयजी २५८. अतएव जगौ यात्रां सप्तपोनियमादिषु यतनां सोमिलप्रश्ने, भगवान् स्वस्थ्य निश्चिताम् ।।२।। - अध्यात्मोपनिषद् - उ. यशोविजयजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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