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________________ १६०/ साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री हैं,' ,२६४ अर्थात् वे श्वास की तरह सहज स्वभावभूत बन जाते हैं। सम्यग्दृष्टि प्रथम संवर कार्य की रुचिवाला होता है। वह देशविरति तथा सर्वविरति ग्रहण करने रूप क्रिया का आश्रय लेता है। निर्मल चारित्रधारी आत्मज्ञानी भी केवलज्ञान को प्राप्त करने की रुचि वाला होने से शुक्लध्यान में चढ़ने रूप क्रिया का आश्रय लेता है। केवलज्ञानी भी सर्वसंवर के पूर्ण आनंद रूप मोक्षप्राप्ति के अवसर पर योगनिरोधरूप क्रिया करते हैं, इसलिए कहा गया है कि ज्ञानी को भी क्रिया की अपेक्षा रहती है। ज्ञानसार में क्रिया की आवश्यकता पर जोर देते हुए कहा गया है- " गुणों की वृद्धि के लिए और गुणों से पतित न हो जाए इसलिए क्रिया करनी चाहिए।' । २६५ कर्मयोग दोषों के निवारण के लिए तथा ज्ञानयोग की वृद्धि के लिए सुंदर भूमिका निभाता हैं, क्योंकि ज्ञानयोग में चित्त की शुद्धि की प्रथम आवश्यकता है और उस आवश्यकता की पूर्ति कर्मयोग करता है। शुभक्रिया द्वारा सम्यग्ज्ञानादि संवेगनिर्वेदरूप प्रकट हुए भाव स्थिर रहते हैं और नहीं प्रकटे हुए गुण धर्मध्यान, शुक्लध्यान आदि के द्वारा प्रकट हो जाते हैं। जैसे चंडरूद्र के शिष्य को गुरुभक्ति से, कुरगडु मुनि को अन्य तपस्वी मुनियों के तप के बहुमान रूपी क्रिया के द्वारा परमानंद की प्राप्ति हुई। उ. यशोविजयजी कहते हैं- “क्षायोपशमिक भाव में रहकर जो शुभक्रिया करने में आती है, तो उस क्रिया द्वारा गिरे हुए शुभभावों की फिर से प्रकृष्ट वृद्धि होती है," अर्थात् सदनुष्ठान से शुभभाव उत्पन्न होते हैं, किन्तु भवितव्यता की वक्रता और निकाचित कर्म के उदय से योगी कभी शुभ परिणाम की धारा से भ्रष्ट हो जाता है। ऐसा होने पर भी नंदिषेण, अषढ़ाभूति, आर्द्रकुमार आदि की तरह संयम से पतित होने पर भी पूर्व प्राप्त शुभभाव वापस वृद्धि को प्राप्त होते हैं, क्योंकि इन जीवों में पहले की गई विधि - आदर - यतना - बहुमानपूर्वक धर्मक्रिया से उत्पन्न शुभ अनुबंध विद्यमान हैं। इस प्रकार आत्मसाक्षी से पूर्व में की गई धर्मक्रिया जीव को शुभ अनुबंध द्वारा फिर से निर्मल अध्यवसाय के शिखर पर पहुँचा देती है। इसीलिए उ. यशोविजयजी ने कहा हैं- “गुणवृद्धि के लिए, अथवा स्खलना न हो इसलिए क्रिया करनी चाहिए | एक अखण्ड संयमस्थान तो जिनेश्वर भगवंत को ही होता है । " २६६ ज्ञान से नष्ट हों, ऐसे कर्मों के क्षय के २६४ २६५ यान्येव सधनान्यादौ, गृहणीयान्ज्ञानसाधकः । सिद्धयोगस्य तान्येव, लक्षणानि स्वभावतः । 19 ।। अध्यात्मोपनिषद् - उ. यशोविजयजी क्षायोपशमिके भावे, या क्रिया क्रियते तया । पतितस्यापि तद्भाव प्रवृद्धिर्जायते पुनः । ।१७ ।। - ( क ) अध्यात्मोपनिषद् - उ. यशोविजयजी (ख) ज्ञानसार - क्रियाष्टक - उ. यशोविजयजी २६६ गुणवृद्ध ततः कुर्यात् क्रियामस्खलनाय वा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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