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१५८/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
सामान्य रूप से परिचय कराता है। विशेष रूप से आत्मा का साक्षात्कार कराने में शास्त्र समर्थ नहीं है।
हाथ तो भोजन को मुँह तक लाने में मदद करते है, किन्तु उसका स्वाद जीभ ही अनुभव करती है। शास्त्रयोग हाथ के समान हैं और ज्ञानयोग जीभ के समान। आत्मा के परोक्ष ज्ञान की अपेक्षा आत्मा का प्रत्यक्ष ज्ञान ही कर्मोदयजन्य भ्रमणाओं को दूर करने का सामर्थ्य रखता है। ज्ञान के साथ तादात्म्य ही मोक्ष है।
__ आत्मसाक्षात्कार की इच्छा वाले साधक को ज्ञान द्वारा अन्तर्मुख होना चाहिए, ज्ञानगर्भित अन्तर्मुखता को प्राप्त करना चाहिए। उ. यशोविजयजी कहते हैं- “अत्यंत मधुर ज्ञानानंद रूपी अमृत का आस्वादन जिसने कर लिया है, उसका चित्त जहर जैसे विषयों में आकर्षित नहीं होता है, अर्थात् विषयों के प्रति राग नहीं होता है।"२६०
ज्ञान तो अनेक को होता है, किंतु प्रश्न यह उठता है कि 'ज्ञानयोग' किसको होता है? अर्थात् ज्ञानयोग का अधिकारी कौन? अभव्यों के पास भी नो पूर्व से कुछ अधिक ज्ञान होता है, किंतु मिथ्यात्व होने के कारण उनका ज्ञान अज्ञानरूप ही है। अपुनर्बन्धक जीवों का जो बोध है, वह सहजमलहास के कारण से ज्ञान के बीजरूप है। सम्यग्दृष्टि आदि जीवों के पास जो बोध है, वह वास्तविक ज्ञानरूप हैं, क्योंकि ग्रंथिभेद होने पर उसकी विपरीत मति नष्ट हो जाती है। आठवें गुणस्थानक से बारहवें गुणस्थानक तक रहे हुए जीवों के पास निश्चयनय से ज्ञानयोग है। इसका दूसरा नाम प्रातिभज्ञान है। ज्ञानयोग की परिपूर्ण शुद्धि या सार्थकता तो केवल ज्ञान में है।
ध्यानदशा में ज्ञान मुख्य होता है और व्यवहारदशा में क्रिया मुख्य होती हैं, इसलिए आगे उ. यशोविजयजी की दृष्टि में 'क्रियायोग' का वर्णन है।
उ. यशोविजयजी की दृष्टि में क्रियायोग 'ज्ञानस्य फलं विरतिः'- ज्ञान का फल विरति है। क्रिया बिना ज्ञान निरर्थक है। यह गधे द्वारा चंदन का भार ढोने के समान है। क्रियासहित ज्ञान ही हितकारी है। उ. यशोविजयजी ने ज्ञानसार में क्रियायोग की महत्ता बताते हुए कहा
२६०. आस्वादिता सुमधुरा येन ज्ञानरतिः सुधा
न लगत्येव तत्वेतो विषयेषु विषेष्विव ।।७।। -अध्यात्मोपनिषद् - उ. यशोविजयजी
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