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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ १५७ वह मोहशून्य है; उसी प्राकर सुप्त, अर्थात् स्वप्नदशा या जाग्रत दशा भी नहीं है, क्योंकि अनुभव संकल्प-विकल्पों से रहित है। अनुभव तो चौथी उजागर दशा है। २५७ प्रातिभज्ञान के काल में अनुभवदशा होती है, क्योंकि उस समय संकल्प-विकल्प मोहादि नहीं होते है। अनुभव चतुर्थ चैतन्य है। उ. यशोविजयजी कहते हैं- "अनुभवज्ञान, अर्थात् प्रातिभज्ञान के बिना इन्द्रियों से अगोचर ऐसी शुद्धात्मा के स्वरूप का अनुभव सैंकड़ो शास्त्रों की युक्तियों द्वारा भी नहीं कर सकते हैं।"२५८ बुद्धि कल्पना से शास्त्रों को समझने वाले बहुत होते हैं, किंतु अनुभवज्ञानरूपी जीभ द्वारा शास्त्रों के रहस्यों का आस्वाद ग्रहण करने वाले बहुत कम होते हैं। उ. यशोविजयजी 'शास्त्रयोग से ज्ञानयोग बलवान है'- इसी बात को एक सुन्दर रूपक द्वारा स्पष्ट करते हैं"किसकी कल्पना रूपी कड़छी शास्त्ररूप दूधपाक में नहीं घूमती है? अर्थात् सभी की कल्पना शास्त्रों में विचरण करती हैं, किंतु शास्त्ररूपी दूधपाक के स्वाद का अनुभव तो ज्ञानयोगी ही अपनी अनुभवज्ञानरूपी जीभ से कर सकते हैं." २५६ अर्थात् शास्त्रों का ज्ञान बाह्य है और अनुभवज्ञान अन्तरंग है। प्रत्येक शास्त्रमार्ग मोक्षमार्ग को बता सकता है, किन्तु मोक्षमार्ग में गति नहीं करने वाले को वह चला नहीं सकता है, आगे नहीं बढ़ा सकता है। मात्र 'ज्ञानयोग' से साध्य- ऐसी मोक्षमार्ग की साधना तो शब्द का विषय ही नहीं है। शास्त्र तो शब्दविशेष के समूह रूप हैं, इस कारण से शास्त्रों में अनुभवगम्य मार्ग को बताने का सामर्थ्य नहीं है। वास्तव में इस अवस्था में तो शास्त्र निवृत्त हो जाते हैं। प्रत्येक अनुभव मात्र गम्य विशेषताओं को बताने की तथा मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति कराने की शास्त्रों में शक्ति नहीं है। केवल शास्त्रों से ही केवलज्ञान की प्राप्ति हो जाती, तो चौदह पूर्वधर निगोद में नहीं जाते। शास्त्र तो आत्मा का २५७. न सुषुप्तिरमोहत्वान्नापि च स्वापजोगरौ कल्पनाशिलपविश्रान्तेस्तुर्येवानुभवो दशा।।२४।। - अध्यात्मोपनिषद् /ज्ञानसार - उ. यशोविजयजी २८. अतीन्द्रियं परं ब्रह्म, विशुद्धानुभवं विना शास्त्रयुक्तिशतेनापि नैवगम्यं कदाचन ।।२१।। - अध्यात्मोपनिषद् /ज्ञानसार - उ. यशोविजयजी t. केषां न कल्पनादर्षी शास्त्रक्षीरान्नग्राहिनी ___ बिरलास्तद्रसास्वाद विदोऽनुभवजिहया ।।२२।। - अध्यात्मोपनिषद् /ज्ञानसार - उ. यशोविजयजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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