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________________ १५६/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री स्याद्वादकल्पलता में भी उ. यशोविजयजी ने प्रातिभज्ञान के विषय में चर्चा की है। उन्होंने बताया कि "केवलज्ञान के पूर्व तथा चार ज्ञान के प्रकर्ष के बाद में, होने वाला सचित्र आलोक समान प्रज्ञा आलोक नाम का विशिष्ट ज्ञान उत्पन्न होता है। उसका दूसरा नाम प्रातिभज्ञान भी है।"२५५ ज्ञानयोग में निर्दिष्ट प्रातिभज्ञान क्षपक श्रेणी में ही प्राप्त होता है, कारण कि प्रातिभज्ञान सामर्थ्ययोग के साथ रहने वाला है। अध्यात्मोपनिषद में उ. यशोविजयजी ने प्रातिभज्ञान को ज्ञानयोग के रूप में स्वीकार किया है, जबकि अध्यात्मसार में उ. यशोविजयजी स्वयं ने तथा शास्त्रवार्तासमुच्चय में हरिभद्रसूरि ने तो आशंस दोष से रहित शुद्ध तप को ही ज्ञानयोग बताया है। इस प्रकार यहाँ यह शंका होती है कि इन ग्रंथों में एक ही तत्त्व के विषय में इस प्रकार विरोधी बातें क्यों कही गई है। इस शंका का समाधान करते हुए यशोविजयजी कहते हैं- अध्यात्मसार तथा शास्त्रवार्तासमुच्चय की टीका स्याद्वाद कल्पलता में ज्ञान से अपृथग्भूत ऐसे ध्यानरूप शुद्ध तप को ज्ञानयोग कहा है। पुष्कल निर्जरा के कारण के रूप में प्रसिद्ध होने से हरिभद्रसूरि ने भी प्रातिभज्ञान के बदले तप शब्द का प्रयोग किया है। उ. यशोविजयजी अध्यात्मसार में ज्ञानयोगी की दशा का वर्णन करते हुए कहते हैं- "ज्ञानयोगी को इस लोक में कार्य करने का या कार्य को नहीं करने का भी कोई प्रयोजन नहीं होता है तथा सभी प्राणियों के प्रति समदृष्टि होती है। किसी के प्रति स्वार्थ या मोह नहीं होता है।"२५६ ज्ञानयोगी को इच्छा नहीं होती हैं, उसी प्रकार उसकी अनिच्छा भी नहीं होती है। कोई कार्य करने का प्रसंग आने पर वे कार्य करते भी हैं, किन्तु मन से उसमें जुड़ते नहीं है, उसमें लिप्त नहीं होते हैं। कार्य करने से, या नहीं करने से उनकी चित्तशुद्धि में कुछ भी अन्तर नहीं पड़ता है। ऐसे ज्ञानयोगी को किसी भी जीव के प्रति राग, द्वेष, स्वार्थ आदि नहीं होते हैं। वे संसार को मात्र साक्षीभाव से देखते हैं। निर्द्वन्द आत्मा के स्वरूप का आनंद प्राप्त कराने वाले ऐसे अनभवज्ञान का स्वरूप बताते हुए उ. यशोविजयजी कहते हैं- 'अनुभव'- यह सुषुप्तिदशा नहीं हैं, क्योंकि २५५. प्रज्ञालोकश्च केवलज्ञानादधः सचित्राऽऽलोककल्पः चतुर्ज्ञानप्रकषोत्तराकालभावी, प्रतिभापरनामा ज्ञानविशेषः - स्याद्वादकल्पलता स्तबक -१-गाथा २१ पृ. ८३ २५६. नैवं तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ।।६।। -अध्यात्मसार - उ. यशोविजयजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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