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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / १५५ जैसे दिवस और रात्रि से संध्या भिन्न है, उसी प्रकार केवलज्ञान और श्रुतज्ञान से प्रातिभज्ञान भिन्न है। " , २५१ इसे अनुभव ज्ञान भी कहते हैं। यह मतिश्रुत का उत्तरभावी तथा केवलज्ञान का पूर्वभावी है। मुनि यशोविजयजी अध्यात्मोपनिषद् की अध्यात्मवैशारदी नामक टीका में योगज अदृष्ट को स्पष्ट करते हुए कहते हैं- “जो मोक्ष के साथ जोड़े, इस प्रकार की सभी शुद्ध धर्मप्रवृत्तियों से उत्पन्न हुआ विशिष्ट पुण्यानुबंधी पुण्य पुष्कल कर्मनिर्जरा में सहायक होता है, उसी को योगज अदृष्ट कहते हैं। उससे प्रातिभ नाम का ज्ञान उत्पन्न होता है, वही ज्ञानयोग है । " " ,२५२ ,,२५३ उ. यशोविजयजी ने षोडशक ग्रंथ की योगदीपिका नामक टीका में बताया है कि “प्रतिभा ही प्रातिभज्ञान कहलाती है । ' यह मतिज्ञान का विशेष स्वरूप है। यह अदृष्टार्थ विषयक होता है। वास्तव में तो क्षपकश्रेणी के द्वारा मोक्षमार्ग का अनुसरण करने वाला प्रकृष्ट 'ऊह' नाम का ज्ञान ही प्रातिभज्ञान है । यह श्रुतज्ञान भी नहीं हैं, उसी प्रकार केवलज्ञान भी नहीं है तथा पाँच ज्ञानों के अतिरिक्त छटवाँ ज्ञान भी नहीं है। परंतु रात और दिन के बीच होने वाले अरुणोदय जैसा है। जैसे अरूणोदय रात या दिन से एकान्त भिन्न भी नहीं हैं, किन्तु दोनों में उसका समावेश भी नहीं होता है । यथासंभव क्षपकश्रेणी में तथाविध उत्कृष्ट क्षयोपशम वाले जीव को प्रातिभज्ञान उत्पन्न होने से उसका वास्तव में श्रुतज्ञानरूपी व्यवहार नहीं हो सकता हैं, उसी प्रकार क्षायोपशमिक होने के कारण तथा सर्वद्रव्यपर्याय विषयक नहीं होने के कारण वह केवलज्ञानस्वरूप भी नहीं है। हरिभद्रसूरि ने भी योगदृष्टिसमुच्चय में बताया है कि “ प्रातिभज्ञान सर्वद्रव्यपर्यायविषयक नहीं होने से केवलज्ञान स्वरूप नहीं है । " २५४ उसी प्रकार प्रातिभज्ञान को अन्य दर्शनकारों ने 'तारकनिरीक्षण ज्ञान' के रूप में मान्य किया है । वाचस्पति मिश्र ने तत्त्ववैशारदी नामक टीका में कहा है कि प्रातिभज्ञान का मतलब है स्वयं की प्रतिभा से उत्पन्न हुआ उपदेश निरपेक्ष ज्ञान। यह संसार - सागर से पार होने का उपाय होने के कारण तारक कहलाता है। योगजादृष्टजनितः स तु प्रातिभसंज्ञितः सन्ध्येव दिनरात्रिभ्यां केवलश्रुतयोः पृथक् ।। २ ।। - अध्यात्मोपनिषद् - उ. यशोविजयजी अध्यात्मवैशारदी -भाग-२, पृ. १५५ - मुनियशोविजयजी प्रतिभैव प्रातिभं अदृष्टार्थविषयो मतिज्ञानविशेषः -योगदीपिका ( षोडशकवृत्ति) - उ. यशोविजयजी २५४ योगदृष्टिसमुच्चयवृत्ति - हरिभद्रसूरि (पृ. ७१) २५१ २५२ २५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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