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१५४/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
माध्यस्थभावना और ज्ञान से सम्पन्न निर्मल बुद्धिवाले साधक शुद्धशास्त्रों के बताए अनुसार मोक्ष मार्ग की ओर गमन करते हैं। ऐसे साधक शास्त्र योगी कहलाते हैं।
शास्त्र की प्राप्ति होने पर भी अभव्य तथा अचरमावर्ती भव्य जीवों को शास्त्रयोग संभवित नहीं हैं, क्योंकि जो मोक्ष से जोड़े, वह योग कहलाता हैं, इसलिए अभव्यादि को मिले हुए शास्त्र भी उनको मोक्ष से नहीं जोड़ सकते हैं। अपुनर्बन्धक मार्गानुसारी जीवों को शास्त्रयोग संभव है, किंतु शास्त्रयोगशुद्धि संभव नहीं हैं, क्योंकि उन्हें अभी ग्रंथिभेद नहीं हुआ है। निर्मल सम्यक्त्व वाला व्यक्ति ही शास्त्रयोग की शुद्धि को प्राप्त कर सकता है।
विशुद्ध शास्त्रयोग तब ही सफल होता है जब साधक ज्ञानयोग की प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करें, इसीलिए उपाध्याय यशोविजयजी के अनुसार 'शास्त्रयोग' की विवेचना के बाद अब 'ज्ञानयोग' का विवेचन किया जा रहा है।
उपाध्याय यशोविजयजी की दृष्टि में ज्ञानयोग ज्ञानयोग बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। मोह का त्याग ज्ञान से ही होता है। जैसे राजहंस हमेशा मानसरोवर में मग्न रहते हैं, उसी प्रकार ज्ञानी हमेशा ज्ञान में ही मग्न रहते हैं। उ. यशोविजयजी अध्यात्मसार में ज्ञानयोग की व्याख्या करते हुए कहते हैं- "ज्ञानयोग शुद्ध तप है, आत्मरति उसका एक लक्षण है। ज्ञानयोग इन्द्रियों को विषयों से दूर ले जाता है, इसलिए ज्ञानयोग मोक्षसुख का साधक तप है।" २५० ज्ञानयोग ऐसा श्रेष्ठ तप है, जिसमें आत्मा के प्रति घनिष्ठ प्रीति तथा आत्मसम्मुख होने की उत्कृष्ट अभिलाषा होती है, इसलिए यह तप पुण्यबंध का निमित्त नहीं बनता है, बल्कि कर्मनिर्जरा का निमित्त बनता है। इन्द्रियों के विषय जीव को पौद्गलिक सुख की तरफ खींचते हैं, किन्तु ज्ञानयोग में पौद्गलिक सुखों की इस भव के लिए, या भवान्तर के लिए कोई अभिलाषा नहीं रहती है। इसमें सिर्फ मोक्षसुख की अभिलाषा रहती है। इसीलिए ज्ञानयोग का माहात्म्य विशेष है।
उ. यशोविजयजी ने अध्यात्मोपनिषद् में ज्ञानयोग का वर्णन करते हुए कहा है कि “प्रातिभज्ञान ही ज्ञानयोग है। यह योगजन्य अदृष्ट से उत्पन्न होता है।
२५०. ज्ञानयोगस्तपः शुद्धमात्मरत्येकलक्षणम्
इन्द्रियार्थोन्मनीभावात् स मोक्षसुखसाधकः -अध्यात्मसार - उ. यशोविजयजी
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