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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / १५३
छान्दोग्योपनिषद् में उत्सर्ग कथन करते हुए कहा है कि “किसी भी जीव को मारना नहीं,,२४५ प्रयोजन - दुर्गति का निवारण |
याज्ञवल्क्यस्मृति में अपवाद कथन करते हुए कहा है कि वेदपाठी ब्राह्मण को बड़ा बैल या बड़ा अज अर्पण करना चाहिए, प्रयोजन अतिथि की प्रीति । इस प्रकार विधि और निषेध का प्रयोजन अलग-अलग होने से कोई भी शास्त्रीय व्यवस्था यहाँ संगत नहीं होती है। इस प्रकार शास्त्रों की कषशुद्धि तथा छेदशुद्धि के निरीक्षण के बाद ताप परीक्षा करना भी आवश्यक है। उ. यशोविजयजी कहते है- “जिनशास्त्रों में सभी नयों के आश्रित विचारस्वरूप प्रबल अग्नि द्वारा तात्पर्य की मलिनता न हो, तो वह शास्त्र तापशुद्धि वाला कहलाता है । " २४६ धर्मबिन्दु ग्रंथ में हरिभद्रसूरि ने कहा है कि “पूर्वोक्त कष और छेद परीक्षा के परिणामी स्वरूप जीवादि के भावों की प्ररूपणा - यह शास्त्र की ताप - परीक्षा है। " २४७ इसका विशेष अर्थ करते हुए मुनिचंद्रसूरि कहते है- “जिन शास्त्रों में द्रव्यरूप में उत्पत्ति तथा विनाश से रहित नित्य तथा पर्यायरूप में प्रतिसमय अलग-अलग स्वभाव को प्राप्त करने के द्वारा अनित्य स्वभाव वाले जीवादि तत्त्वों की व्यवस्था बताई गई है, उन शास्त्रों में तापशुद्धि होती हैं, क्योंकि परिणामी आत्मा में तथाविध अशुद्ध पर्यायों को दूर करके ध्यान, अध्ययन आदि द्वारा शुद्ध पर्याय प्रकट होने से पूर्वोक्त कष और बाह्य क्रिया से शुद्धिस्वरूप छेद संभव हो सकता है । २४८ आत्मा को एकान्त नित्य या एकान्त क्षणिक मान लें, तो कष तथा छेद सार्थक नहीं बन सकते हैं।
मुनि यशोविजयजी अध्यात्मवैशारदी नामक टीका में कहते हैं“शास्त्ररूपी स्वर्ण की कषशुद्धि और छेदशुद्धि होने पर भी यदि तापशुद्धि नहीं हो, तो उन्हें नकली स्वर्ण की तरह अशुद्ध जानना चाहिए। ताप से शुद्ध होने पर ही शास्त्र शुद्ध कहलाता है । २४६
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यशोविजयजी
२४७ धर्मबिन्दु ग्रन्थ - हरिभद्रसूरि
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न हिंस्यात् सर्वभूतानि - छान्दोग्योपनिषद् -
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यत्र सर्वनयालम्बिविचारप्रबलाग्निना ।
तात्पर्यश्यामिका न स्यात् तच्छास्त्रं तापशुद्धिमत् ॥ २६ ॥ -अध्यात्मोपनिषद् - उ.
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धर्मबिन्दु व्याख्याग्रन्थ पृष्ठ - ३८ - मुनिचन्द्रसूरि अध्यात्मवैशारदी - मुनियशोविजयजी
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