SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५२/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री मुनि कायिकी आदि, अर्थात् मूलमंत्र आदि के विसर्जन की क्रिया में भी समिति और गुप्ति के पालन करे, तो फिर बड़े कार्यों का तो कहना ही क्या?"२५३ इसका तात्पर्य यही है कि साधु को प्रत्येक कार्य उपयोगपूर्वक करना चाहिए। उठना, बैठना, शयन करना, बोलना, आहार, विहार, निहार आदि सभी क्रियाएँ जयणापूर्वक करना चाहिए। स्वाध्याय धर्मदेशना आदि बड़े कार्यों में भी सदा पाँच समिति और तीन गुप्ति में अप्रमत्त रहकर ही साधुओं को करना चाहिए। निषेधरूप में छेदशुद्धि प्रमाद को उत्पन्न करें, ऐसा गरिष्ठ आहार एवं शय्यादि का सेवन नहीं करना चाहिए। अकाल में शस्त्रादि द्वारा देहत्याग नहीं करना चाहिए। उ. यशोविजयजी कहते है- “जिन शास्त्रों में उपसर्ग कथन और अपवाद कथन दोनों के प्रयोजन भिन्न-भिन्न हों, तो वे शास्त्र छेदशद्धि वाले नहीं होते हैं, क्योंकि उनमें रहे हुए विधि और निषेध दोषग्रस्त हैं।"२४ अतः उत्सर्ग और अपवाद- दोनों मार्गों का उद्देश्य एक ही होना चाहिए। जैसे साधुओं को संयम पालन के लिए नवकोटि शुद्ध, अर्थात् बयालीस दोषरहित आहार ग्रहण करना चाहिए, यह उत्सर्ग मार्ग है, किन्तु विकट परिस्थितियों में कोई दूसरा उपाय नहीं होने पर यतनापूर्वक अनेषणीय आदि ग्रहण करना यह अपवाद है। जितना हो सके संयम में दोष कम लगे और कम से कम प्रायश्चित का कारण बने। इसी प्रकार अति गम्भीर परिस्थिति में अशुद्ध आहार आदि को संयम पालन के उद्देश्य से ही सजगता पूर्वक ग्रहण करना यह अपवाद मार्ग है। यह अपवाद मार्ग भी संयम की रक्षा के हेतु से है। जो दीर्घ संयमीजीवन का कारण ___सामान्य रूप से कहे गए विधान उत्सर्ग तथा विशेष रूप से बताए गए विधि विधान अपवाद मार्ग कहलाते हैं। उपर्युक्त उदाहरण में उत्सर्ग और अपवाददोनों कथनों का उद्देश्य एक ही 'संयम की वृद्धि' है। मुनि यशोविजयजी ने अध्यात्मोपनिषद् की टीका अध्यात्मवैशारदी में कहा है- “अन्य दर्शनियों के शास्त्रों में उत्सर्ग का प्रयोजन अलग और अपवाद का प्रयोजन अलग होता है। जैसे २५३. कायिकाद्यपि कुर्वीत गुप्तश्च समितो मुनिः कृत्ये ज्यायसि किं वाच्यमित्युक्तं समये यथा ।।२२।। -अध्यात्मोपनिषद् -उ. यशोविजयजी अन्यार्थ किंचिदुत्सृष्टं, यत्रान्यार्थमपोद्य ते। दुर्विधिप्रतिषेधं तद् न शास्त्रं छेदशुद्धिमत् ।।२३।। - अध्यात्मोपनिषद् - उ. यशोविजयजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy