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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ १५१ वर्णिकाशुद्धि की परीक्षा करनी चाहिए।" २३६ इससे यह फलित होता है कि जो शास्त्र परीक्षा में अनुत्तीर्ण होते हैं, वे शास्त्र अशुद्ध कहलाते हैं। योगबिंदु में कहा गया है- "प्रत्यक्ष, अनुमान आदि द्वारा प्रतीतियोग्य तत्त्व भी जिन शास्त्रों द्वारा सिद्ध नहीं होता है, उनके आधार पर अदृष्ट में प्रवृत्त होना, प्रवृत्त व्यक्तियों की अन्धश्रद्धा का परिचायक है। उससे लक्ष्य की प्राप्ति संभव नहीं है। जो प्रत्यक्ष अनुमान आदि से अनुगत या संगत है, उन्हीं शास्त्रों के आधार पर दृष्ट तथा अदृष्ट में प्रवृत्त होना उपयुक्त है," २४० इसलिए जिन शास्त्रों को स्वीकार किया जाए उनकी परीक्षा करना आवश्यक है। उ. यशोविजयजी शास्त्ररूपी स्वर्ण की कष परीक्षा के विषय में कहते हैं- “एक अधिकार में अनेक कर्तव्यों के विधान और अकर्तव्यों के निषेध का जिन शास्त्रों में वर्णन किया गया है, उसे कष-शुद्धि कहते हैं।"२४१ जैसे संयम के विषय में विधान रूप समिति और गप्ति निषेध रूप । जिसमें एकेन्द्रियादि जीवों की भी हिंसा करना नहीं, कराना नहीं और उसका अनुमोदन भी करना नहीं- ऐसे सूक्ष्म हिंसा के निषेध वाक्य जिन आगमों में हों, वे आगम कषशुद्ध कहलाते हैं। शास्त्ररूपी स्वर्ण की छेद परीक्षा का वर्णन करते हए उ. यशोविजयजी कहते हैं- "जिन शास्त्रों में पूर्वोक्त विधि निषेधों का योग-क्षेम करने वाली क्रियाएँ बताई हों, वे शास्त्र छेदशुद्धि वाले कहलाते हैं।"२४२ सिद्धान्तों के रूप में शास्त्र में जो विधि तथा निषेध बताएँ गए हैं, वे व्यावहारिक जीवन में तथा अनुष्ठानों में प्रतिबिम्बित हों और आगे प्रवाहित हों, ऐसी क्रियाओं को बताने वाले शास्त्र छेदशुद्धि वाले कहलाते हैं। छेदपरीक्षा को उ. यशोविजयजी उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हुए कहते हैं- "शास्त्रों में कहा है कि २३६. परीक्षन्ते कषच्छेदतापैः स्वर्ण यथा जनाः । शास्त्रेऽपि वर्णिकशुद्धि परीक्षन्तां तथा बुधाः ।।१७।। -अध्यात्मोपनिषद् -उ. यशोविजयजी दृष्टबाधैव यत्रास्ति ततोऽदृष्टप्रवर्तनाम् । असच्छत्रद्धाभिभूतानां केवलं ध्यानध्यसूचकम् ।।२४।। प्रत्यक्षेणानुमानेन यदुक्तोऽर्थो न बाध्यते। दृष्टोऽदृष्टेऽपि युक्ता स्यात् प्रवृत्तिस्तत एव तु।।२५।। -योगबिन्दु -हरिभद्रसूरि विधयः प्रतिषेधाश्च भूयांसो तत्र वर्णिताः एकाधिकारा दृश्यन्ते, कषशुद्धिं वदन्तिताम् ।।१८ ।। -अध्यात्मोपनिषद् - उ. यशोविजयजी विधीनां च निषेधानां, योगक्षेमकरी क्रिया वर्ण्यते यत्र सर्वत्र, तच्छास्त्रं छेदशुद्धिमत् ।।२१।। - अध्यात्मोपनिषद् - उ. यशोविजयजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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