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१५० / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
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साक्षात् परमात्मा की अनुपस्थिति में भव्य जीवों के लिए उनकी वाणी का ही आधार है, इसलिए उ. यशोविजयजी ने योगचतुष्टय में सर्वप्रथम शास्त्रयोग का वर्णन किया हैं। वे शास्त्र शब्द का व्युत्पत्ति अर्थ बताते हुए कहते हैं कि "जो हितोपदेश करे और जिसमें रक्षण करने का सामर्थ्य हो उसे पंडितों ने शास्त्र कहा है इन शास्त्रों में वीतराग के वचन हैं, किसी अन्य के नहीं । २३७
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शास्त्र शब्द दो धातुओं के योग से बना है। 'शास्' तथा 'त्रै'। 'शास्’ धातु का अर्थ है - शासन करना, अर्थात् हितोपदेश करना। '' धातु का अर्थ हैरक्षण करना। 'शास्त्र' शब्द अपने व्युत्पत्ति लक्ष्य अर्थ के अनुसार गुणनिष्पन्न है। उ. यशोविजयजी की दृष्टि में कष, छेद और तप परीक्षा से शुद्ध और अध्यात्ममार्ग पर प्रकाश फैलाने वाले तथा अर्थ की अपेक्षा से सर्वज्ञ कथित, सूत्र की अपेक्षा से गणधर द्वारा ग्रंथित हैं तथा माध्यस्थभावना से युक्त ऐसे स्थविरों द्वारा परिपुष्ट हुए हैं। इस प्रकार के शास्त्र ही जीवों पर अनुशासन और रक्षण करने का सामर्थ्य रखते हैं। इन शास्त्रों में बताई गई विधि अनुसार मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति करने वाले निर्मल बुद्धि वाले साधकों का योग अर्थात् प्रवृत्ति शास्त्रयोग कहलाता है। २३८
अध्यात्मतत्त्वालोक में न्यायविजयजी शास्त्रयोग का वर्णन करते हुए कहते हैं- " उत्कृष्ट श्रद्धा और बोधवाला तथा अप्रमादी - ऐसे महात्मा का यथाशक्ति आगमानुसार जो स्वच्छ धर्मक्रियारूप आचरण है, उसे शास्त्रयोग कहते हैं । " संसार में विभिन्न दर्शनों के अनेक प्रकार के शास्त्र उपलब्ध हैं। किस शास्त्र को स्वीकार करें? क्योंकि हर चमकने वाली वस्तु स्वर्ण नहीं होती है। इसके समाधान में उपाध्याय यशोविजयजी कहते हैं- “ जैसे लोग कष, छेद और ताप द्वारा स्वर्ण की परीक्षा करते हैं, उसी प्रकार विद्वान पुरूषों को भी शास्त्रों के विषय में
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आगमचक्खूसाहू चम्मचक्खूणि सव्वभूयाणि ।
देवाय ओहिचक्खू, सिद्धापुण सव्व दो चक्खू ।। समयसार - आचार्य कुन्दकुन्द
शासनात्त्राणशक्तेश्च बुधैः शास्त्रं निरुच्यते ।
वचनं वीतरागस्य तत्त्व ( त्रु) नान्यस्य कस्यचित् ।। १२ ।। - अध्यात्मोपनिषद् तथा ज्ञानसार - उ. यशोविजयजी
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श्रद्धान-बोध दधतः प्रकृष्टौ हतप्रमादस्य यथाऽऽत्मशक्ति ।
यो धर्मयोगो वचनानुसारी स शास्त्रयोगः परिवेदितव्यः ॥ ६ ॥
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-सप्तम् प्रकरणम् - अध्यात्मतत्त्वालोक - न्यायविजयजी
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