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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ १४६
नहीं किया जाता, अर्थात् उसका बारबार परिशीलन नहीं किया जाता, तब तक व्यक्ति को ज्ञान या क्रिया में से एक भी वस्तु सिद्ध नहीं होती है।"२३३
अन्य दर्शनकारों ने भी इस बात को स्वीकार किया है। योगवशिष्ठ में कहा गया है- "जैसे आकाश में दोनों ही पाँखों द्वारा पक्षी की गति होती है, उसी प्रकार ज्ञान और क्रिया द्वारा परमपद की प्राप्ति होती है। केवल क्रिया से या मात्र ज्ञान से मोक्ष नहीं होता है, किन्तु दोनों के द्वारा ही मोक्ष होता है। दोनों ही मोक्ष के साधन हैं।"१२° इस प्रकार साधनामार्ग में विविधता होते हुए भी वे समुच्चयरूप से ही मोक्ष के साधन हैं। उ. यशोविजयजी की दृष्टि में योगचतुष्टय १. शास्त्रयोग :
कोई व्यक्ति जंगल से गुजर रहा हो और मार्ग पर घोर अंधकार हो, साथ ही प्रकाश की व्यवस्था भी नहीं हो, तो वह भटक जाता है, अपने गन्तव्य-स्थान पर नहीं पहुंच सकता है, किंतु यदि किसी के हाथ में दीपक है, तो वह उस रास्ते को पार करके अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँच जाता है। यह संसार भी अज्ञानरूपी अंधकार से घिरा हुआ है, लेकिन जिसके साथ में, जिसके हृदय में शास्त्ररूपी दीपक है, तो वह अपने गन्तव्य-स्थान पर पहुँच सकता है।
उपाध्याय यशोविजयजी ने ज्ञानसार में कहा है- “सामान्यतः मनुष्य चमड़े की आँख वाले होते हैं। देवता अवधिज्ञानरूपी चक्षु वाले होते हैं। सिद्ध सर्वत्र चक्षु वाले, अर्थात केवलज्ञानरूपी चक्षु वाले होते है और साधु आगम (शास्त्र) रूपी चक्षु वाले होते हैं।" २३५ “समयसार में भी साधुओं को आगमरूपी चक्षु वाले कहा.
__ न यावत्सममभ्यस्तौ, ज्ञानसत्पुरुष क्रमौ।
एकोऽपि नैतयोस्तावत् पुरुषस्येह सिध्यति ।।३५ ।। -अध्यात्मोपनिषद् -उ. यशोविजयजी उभाभ्यामेव पक्षाभ्यां यथा हवे पक्षिणां गतिः तथैव ज्ञान कर्मभ्यां जायते परमं पदम् ।।७।।। केवलात् कर्माणोज्ञानात् नहि मोक्षाऽभिजायते
किन्तूभाभ्यां भवेन्मोक्षः साधनं तुभयं विदुः।।। ।। प्रथमाधिकार-योगवशिष्ठ २३५. चर्मचक्षुर्भूतः सर्वे देवाश्चावधिचक्षुषः ।
__सर्वतश्चक्षुषः सिद्धाः साधवः शास्त्रचक्षुषः ।।१।। -शास्त्राष्टक-२४, ज्ञानसार-उ. यशोविजयजी
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