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१४८/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
को बंद कर देने से आत्मरूपी गृह शुद्ध होता है। "२३° ज्ञान का सार चारित्र और चारित्र का सार मोक्ष है। सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूपी दो अश्व सम्यग्दर्शन रूपी रथ को खींचते हैं। सम्यग्दर्शन होने के बाद व्यक्ति ज्ञान तथा क्रिया द्वारा आध्यात्मिक विकासमार्ग में आगे बढ़ता जाता है।
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र- तीनों का साहचर्य मोक्षप्राप्ति का साधन है, तो अब यह प्रश्न उठता है कि जीव को इनकी प्राप्ति एक साथ होती है, या एक के बाद दूसरे की? इस विषय में उत्तराध्ययन में लिखा गया है- “सम्यग्दर्शन के बिना सम्यक्चारित्र नहीं होता है, किन्तु सम्यक्चारित्र के बिना सम्यग्दर्शन हो सकता है। सम्यग्दर्शन और चारित्र एक साथ भी होते है, किन्तु चारित्र से सम्यग्दर्शन पहले होता है," २२' अर्थात सम्यकचारित्र सम्यग्दर्शन के बाद ही होता है। सम्यग्दर्शन बिना ज्ञान सम्यक् हो नहीं सकता है, क्योंकि मिथ्यादृष्टि का ज्ञान अज्ञान ही कहलाता है। जिस ज्ञान के साथ आत्मा एवं मोक्ष के प्रति यथार्थ श्रद्धा होती है, वही ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है। ज्ञान के तीनों दोष संशय, विभ्रम और विपर्यय सम्यग्दर्शन के स्पर्श से नष्ट हो जाते हैं और सामान्य ज्ञान सम्यग्ज्ञान में परिवर्तित हो जाता है। 'सा विद्या या विमुक्तये'- विद्या या ज्ञान वही है, जो मुक्ति प्रदान करे। उ. यशोविजयजी ने अध्यात्मोपनिषद् में कहा है कि ज्ञान के परिपाक से क्रिया असंगभाव को प्राप्त होती है। चंदन से जैसे सुगन्ध अलग नहीं होती है, उसी प्रकार ज्ञान से क्रिया अलग नहीं होती है। १२ “जिस तरह उत्तम चंदन कभी भी सुगंधरहित नहीं होता है, उसी प्रकार तत्त्वज्ञानी कभी भी स्वोचित प्रवृत्ति से रहित नहीं होते हैं। इसी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए उ. यशोविजयजी कहते हैं- “जब तक ज्ञान और महापुरुषों के आचारों का समान रूप से अभ्यास
असहावनतोहिकर, नाणमिह पगासमेत्तभावाओ। सोहेइ घरकयारं 'जह, सुपगासोऽवि न पईवो।।११७०।। नय सव्वविसोहिकरी, किरियावि जमपगासधम्मा सा जह न तमोगेहमलं, नरकिरिया सव्वहा हरइ।।११७१।। दीवाइपयासं पुण सक्किरियाए विसोहियकयारं संवरियकयारागमदारं सुद्धं घरं होइ ।।११७२।। तह नाणदीपविमलं, तवकिरियासुद्धकम्मयकयारं संजमसंवरियपहं जीवधरं होइ सुविसुद्ध ।।११७३।। -विशेषावश्यक भाष्य-श्री जिनभद्रगणी नत्थिचस्ति सम्मत्तविहूणं दंसणे उ भइयत्वं
सम्मत्त-चरित्ताइं जुगवं पुत्वं व सम्मत्तं ।।२६ | मोक्षमार्गगति -२८-उत्तराध्ययन ३२. ज्ञानस्यपरिपाकाद्धि, क्रियाऽसङ्ग्वमङ्गति।
न तु प्रयाति पार्थक्यं, चन्दनादिव सौरभम् ।।४०।-अध्यात्मोपनिषद् -उ. यशोविजयजी
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