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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / १४७ ,,२२७ पर भी अगर वह मिथ्यादृष्टि है, तो मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता है।"" सम्यक्त्व के बिना की गई शुभ क्रियाएँ भी घानी के बैल जैसी हैं, संसार में भटकाने वाली हैं, जबकि द्रव्यचारित्र से भ्रष्ट हुई आत्मा यदि सम्यग्दर्शन को प्राप्त हो गई हो, तो उसको कभी - कभी द्रव्यचारित्र लिए बिना भी वीतरागदशा और केवलज्ञान प्राप्त हो सकता है, जैसे ईलायचीकुमार आदि । यहाँ यह ध्यान देना आवश्यक है कि यदि द्रव्यचारित्र नहीं हो, तो भी उसमें भावचारित्र तो अवश्य होता ही है, क्योंकि सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र - तीनों सहचारी रूप से मोक्षमार्ग के कारण हैं। उत्तराध्ययन में कहा गया है- “जीव सम्यग्ज्ञान से जीवादि पदार्थों और उनकी द्रव्य, गुण, पर्यायों को जानता है। सम्यग्दर्शन से उन पर यथार्थ श्रद्धा करता है । सम्यक्चारित्र से नवीन आते हुए और आत्मा के साथ बँधते हुए कर्मों का निरोध करता है तथा तप से पूर्वसंचित कर्मों का क्षय करता है । " इसी बात को स्पष्ट करते हुए विशेषावश्यक भाष्य में कहा गया है- “ज्ञान प्रकाशक है, तपशोधक है और संयमगुप्ति (रक्षण ) करने वाला है और तीनों का योग हो, तो ही जिनशासन में मोक्ष की प्राप्ति कही है। ' ,२२८ २२६ “जैसे अच्छा प्रकाशवाला मात्र दीपक घर का कचरा शुद्ध नहीं कर सकता है, उसी प्रकार ज्ञान भी प्रकाशमात्र स्वभाव वाला होने से संयमादि की सहायता के बिना आत्मगृह को शुद्ध नहीं कर सकता है तथा अंधकार वाले घर के कचरे को 'मनुष्य की क्रिया' दूर नहीं कर सकती हैं, उसी प्रकार चारित्ररूप क्रिया भी आत्मग्रह की सम्यग्ज्ञान के प्रकाश बिना सर्वथा विशुद्धि नहीं कर सकती है, परंतु दीपक का प्रकाश और सत्क्रिया द्वारा कचरे आने के द्वार को बंद कर देने से गृह जिस प्रकार शुद्ध होता है, उसी प्रकार ज्ञानरूप प्रकाश और तपरूप क्रिया द्वारा कर्मरूपी कचरा बाहर निकालने से तथा संयम द्वारा आश्रवद्वार २२७ कुर्वन्निवृत्तिमप्येवं, कामभोगांस्त्यजन्नपि । दुखस्योरो ददानोऽपि, मिथ्यादृष्टि न सिद्ध्यति । ।४ ।। - सम्यक्त्व अधिकार - अध्यात्मसार - उ. यशोविजयजी २२८ नाणेण जाणइ भावे, दसणेण य सट्टहे ૨૨૯ • चस्तिण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्झई । । -उत्तराध्ययन २८ / ३५ नाणं पयासयं सोहओ, तवो संजमो य गुत्तिकरो । तिन्हं पि समाओगे, मोक्खो, जिणसासणे भणिओ । ।११६६ ।। - विशेषावश्यकभाष्य - जिनभद्रगणि Jain Education Internatiohal For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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