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१४६/ साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
“आत्मा का निश्चय वह सम्यग्दर्शन है। आत्मा का बोध वह सम्यग्ज्ञान है और आत्मा में ही स्थिति वह सम्यक्चारित्र है । '
,२२४
दर्शनमोहनीयकर्म के क्षयोपशम से सम्यग्दर्शन होता है और चारित्रमोहनीय कर्म के क्षयोपशम से सम्यक् चारित्र की प्राप्ति होती है। ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होती है। इन तीनों की एकता ही शिवपद का कारण है। सम्यग्दृष्टि का चतुर्थ गुणस्थानक होता है, जबकि सम्यक्चारित्र का प्रारंभ पाँचवें गुणस्थानक से होता है। उत्तराध्ययन में कहा गया है- “सम्यग्दर्शनरहित जीव को सम्यग्ज्ञान नहीं होता है। ज्ञान के बिना चारित्रगुण नहीं होता है, चारित्र गुण से विहीन जीव को मोक्ष नहीं होता है तथा मोक्ष हुए बिना निर्वाण नहीं होता है । " २२५ सम्यग्दर्शन मोक्षरूपी महल की नींव है। उपाध्याय यशोविजयजी ने अध्यात्मसार में कहा है- “ नेत्र का सार कीकी है और पुष्प का सार सौरभ है, उसी प्रकार धर्मकार्य का सार सम्यक्त्व है । २२६
प्राचीनकाल में जब राजा स्वयं का राज्यपाट और सर्वस्व हार जाता, तब रानी प्रमुख बालकुमार को बचाने की पूरी तैयारियाँ करतीं। बालक को लेकर वह भाग जाती, क्योंकि वह जानती थी कि जो राजबीज बच जाएगा, तो पति द्वारा खोया हुआ राज्य पुनः प्राप्त किया जा सकेगा ।
राजबीज जैसा ही यह सम्यग्दर्शन है। आध्यात्मिक मार्ग में, मोक्षपथ में सम्यक् दर्शन से रहित व्यक्ति चाहे कितना ही ऊँचा चारित्रधर हो, तो भी वह कदापि मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता है । उ. यशोविजयजी ने अध्यात्मसार में कहा है - "अंधे व्यक्ति की तरह कोई पुरुष संसार से निवृत्त हो गया हो, काम भोग त्याग कर दिए हों; कष्टसहिष्णु हो; अनेक प्रकार की त्याग - वैराग्य की प्रवृत्ति होने
२२४ दर्शनं निश्चयः पुंसि बोधस्तद्बोध इष्यते । स्थितिरत्रैव चारित्रमिति योगः शिवाश्रयः । । १४ । ।
२२५ नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विना न हुंति चरणगुणा
२२६
- एकत्वसप्तति अधिकार पद्मनन्दिपंचविंशतिका- आ. श्रीपद्मनन्दि
अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोवखस्स नित्वाणं । । - मोक्षमार्ग २८/३० - उत्तराध्ययन
कनीनिकेव नेत्रस्य कुसुमस्येव सौरभम्
सम्यक्त्वमुच्यते सारः सर्वेषां धर्मकर्मणाम् ।।५।। सम्यक्त्व अधिकार - अध्यात्मसार - उ. यशोविजयजी
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