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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ १४५
इसी तरह अद्वैत ब्रह्म, अर्थात् आत्मा की ज्ञान-दर्शन आदि से अभिन्नता का शब्दों द्वारा वर्णन करना अशक्य है।" शब्दों द्वारा विशिष्ट प्रकार की मिठास का निरूपण नहीं होने पर भी उनका अपलाप नहीं होता है, क्योंकि यह अनुभवसिद्ध है, ठीक इसी प्रकार अद्वैत ब्रह्म का स्वरूप अनिवर्चनीय होने पर भी उसका अपलाप नहीं कर सकते हैं, क्योंकि अपरोक्ष अनुभूति द्वारा तो जान ही सकते हैं।
साधनों का साध्य से अभेद निश्चयदृष्टि से, तात्त्विक है, व्यावहारिक नहीं है। व्यावहारिक जीवन में साध्य, साधक और साधनापथ तीनों ही अलग-अलग हैं। साधनामार्ग की परस्पर विविधता एवं एकता
पूर्व में साधनों का साध्य से अभेद किस प्रकार है, इसका वर्णन किया गया है। मोक्ष को प्राप्त करने के साधन निरूपचार रत्नत्रयरूप परिणति है। सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक चारित्र में से अलग-अलग कोई भी एक या दो मिलकर भी मोक्ष की प्राप्ति नहीं कर सकते हैं। मोक्ष-प्राप्ति के लिए तीनों का साहचर्य आवश्यक है। तीनों मिलकर मोक्षमार्ग है। जैसे जीवन के लिए भोजन, पानी और श्वांस-तीनों की ही आवश्यकता होती है, तीनों में से एक के भी नहीं होने पर जीवन अधिक दिनों तक नहीं रह सकता है, उसी प्रकार साध्य, अर्थात् मोक्ष-प्राप्ति के लिए तीनों की ही आवश्यकता है। यह जिज्ञासा सहज ही उठती है कि आत्मस्वरूप की प्राप्ति के साधनों में एकत्व होने पर भी उनमें परस्पर विविधता किस प्रकार है?
नियमसार में उपचार से भेद बताते हुए कहा गया है- “विपरीत मति से रहित पंचपरमेष्ठी के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा, निश्चल भक्ति, वही सम्यक्त्व है। संशय, विमोह और विभ्रम रहित जिन प्रणीत हेय उपादेय तत्त्वों का ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है।" २२२ पापक्रिया से निवृत्तिरूप परिणाम सम्यक् चारित्र है। निश्चयदृष्टि से
२२२. यो ह्याख्यातुमशक्योऽपि, प्रत्याख्यातुं न शक्यते
प्राज्ञैर्न दूषणीयोऽर्थः स माधुर्यविशेषवत् ।।४६।। -अध्यात्मोपनिषद् - उ. यशोविजयजी १२३. विपरीताभिणिवेशविवर्जित श्रद्धानमेव सम्यक्त्वम् ।
संशयविमोहविप्रमविवर्जितं भवति संगनम् ।।५१।। -शुद्धभावाधिकार -नियमसार -आ.
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