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१४४ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
केवल मिर्ची खाने से मात्र तीखेपन का अनुभव होता है, केवल नीम्बू चखने से खट्टेपन का अनुभव होता है, नमक खाने से खारेपन का अनुभव होता है, किंतु उचित मात्रा में मिर्ची-नमक - नीम्बू डालकर बनाए हुए उत्तम भोजन में, यह स्वादिष्ट है- ऐसा ही अनुभव होता है, नहीं कि स्वतंत्र रूप से खारास, मिठास, खटास या तीखास का। स्वादिष्ट, खारास, तीखास आदि भिन्न है या अभिन्न, यह चर्चा अस्थान (अनुचित) है।
उपाध्याय यशोविजयजी कहते हैं कि पवन के झोंके से उत्पन्न तरंग जैसे समुद्र से अभिन्न होने के कारण समुद्र में विलीन हो जाती है, उसी प्रकार महासामान्य स्वरूप ब्रह्म ( परमसत्ता ) में नयजन्य भेदभाव डूब जाते हैं। अलग-अलग नयों के विभिन्न अभिप्रायों से उत्पन्न होने वाले आत्मा संबंधी द्वैत शुद्धात्मा में लीन हो जाते हैं।
शुद्धात्मा का स्वरूप शब्दों से अवर्णनीय है। साधनों की साध्य से अभिन्नता अनुभव करते हुए भी उसका स्पष्ट वर्णन नहीं कर सकते हैं, इसलिए सत्व चैतन्यादि गुणधर्म आत्मा से भिन्न है या अभिन्न, इस प्रश्न का शब्द द्वारा स्पष्ट समाधान नहीं किया जा सकता हैं। क्योंकि आत्मसाक्षात्कार यह लोकोत्तर है और भेदाभेद के विकल्प लौकिक है।
महासामान्यरूपेऽस्मिन्मज्जन्ति नयजा भिदाः समुद्र इव कल्लोलाः पवननोन्माभनिर्मिताः।।४१।।
उपाध्याय यशोविजयजी कहते हैं
“जिन पदार्थों का शब्दों द्वारा निरूपण कर सकें, ऐसा ( सम्भव ) नहीं हो, तो भी प्राज्ञपुरुषों द्वारा उसका अपलाप नहीं किया जाता है, माधुर्य विशेष की
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तरह।'
रत्नत्रयी का आत्मा से एकत्व - यह अपरोक्ष अनुभव से गम्य है। जैसे आम, गुड़, शक्कर आदि की मिठास में परस्पर भेद है, किंतु शब्दों द्वारा भेदों का निरूपण करना अशक्य है।
न्यायभूषण ग्रंथ में भासर्वज्ञ ने कहा है- “गन्ना, दूध, गुड़ आदि की मिठास में बहुत अन्तर है, फिर भी उन्हें शब्दों द्वारा बताना शक्य नहीं है, ठीक
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यो ह्याख्यातुमशक्योऽपि प्रत्याख्यातुं न शक्यते ।
प्राज्ञैर्न दूषणीयोऽर्थः स माधुर्यविशेषवत् ||४६ || अध्यात्मोपनिषद् - उ. यशोविजयजी
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