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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ १४३ है। उसके यही ज्ञान अनुभूति और संकल्प सम्यदिशा में नियोजित होने पर साधनापथ बन जाते हैं। यही जब अपनी पूर्णता को प्रकट कर लेते हैं, तो साध्य बन जाते हैं।"२१८ जब साधक आध्यात्मिक विकासमार्ग में आगे बढ़ता है तब सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, सम्यक् तप उसके साधनापथ बनते हैं और साधनापथ पर चलते हुए जब वह अनंतचतुष्टय उपलब्ध कर ले, तो वही अवस्था साध्य बन जाती है। आत्मा की सम्यक् अवस्था साधनापथ है और पूर्णावस्था साध्य है। गीता के अनुसार भी साधनामार्ग के रूप में जिनसद्गुणों का विवेचन उपलब्ध है, उन्हें परमात्मा की विभूति माना गया है। यदि साधक आत्मा परमात्मा का अंश है और साधनामार्ग परमात्मा की विभूति है और साध्य वही परमात्मा है, तो फिर इनमें अभेद ही माना जाएगा। उपाध्याय यशोविजयजी ने अध्यात्मोपनिषद् में कहा है- “संग्रहनय के अनुसार सत्चित् आनंदस्वरूप ब्रह्मतत्त्व शुद्धात्मा है, अर्थात् आत्मा ज्ञान दर्शन चारित्रमय है। सच्चिदानंद स्वरूप है। परस्पर अनुविद्ध सत्व, ज्ञान और सुखमय आत्मा- यही परमात्मा है।"२१६ ब्रह्मविद्या उपनिषद् में कहा गया है- “मैं केवल सच्चिदानन्दस्वरूप हूँ, ज्ञानघन हूँ, परमार्थिक केवल सन्मात्र सिद्ध सर्व आत्मस्वरूप हूँ।"२२० ज्ञानादि धर्म आत्मा से भिन्न हैं या अभिन्न हैं, यह विचारणा नयों की अपेक्षा से हो, तो अनेक प्रकार के नयों कि विचारणाओं से भेद या अभेद उपस्थित होता है। निर्विकल्प ज्ञान में तो नयों की विवक्षा नहीं होती है, इसलिए विभिन्न नयों की विचारणाओं से भेद या अभेद का अवगाहन निर्विकल्प ज्ञान में नहीं होता। ब्रह्मतत्त्व का अवगाहन करने वाला निर्विकल्प ज्ञान ब्रह्मतत्त्व को सत्वरूप में, चैतन्य या आनन्दरूप में अनुभव नहीं करता है, परंतु अखण्ड सच्चिदानंदघन स्वरूप में ब्रह्मतत्त्व का, अर्थात् आत्मा का संवेदन करता है। जैसे २१. जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन -डॉ. सागरमल जैन, भाग -२ पृ. ४३३ २१६. नयेन सङ्ग्रहेणैवमृनुसूत्रोषजीविना __ सच्चिदानन्दस्वरूपत्वं ब्रह्मणो व्यवतिष्ठते।।४३।। -अध्यात्मोपनिषद् - उ. यशोविजयजी सच्चिदानन्दमात्रोऽहं स्वप्रकाशोऽस्मि चिद्धनः सत्वस्वरूप-सन्मात्र सिद्ध-सर्वात्मकोऽस्म्यहम् ।।१०६ ।। -ब्रह्मविद्योपनिषद २२०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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