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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ १४१ जैसे श्रीमद्भगवतगीता में ईश्वर का स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि भूत, भविष्यत् और वर्तमान को जानने वाला सर्वज्ञ पुरातन सम्पूर्ण संसार का शासक और अणु से भी अणु, अर्थात् सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर, सम्पूर्ण कर्मफल का विधायक, अर्थात् विचित्र रूप से विभाग करके सब प्राणियों को उनके कर्मों का फल देने वाला है तथा अचिन्त्यस्वरूप, अर्थात् जिसका स्वरूप नियत और विद्यमान होते हुए भी किसी के द्वारा चिन्तन न किया जा सके, ऐसा है एवं सूर्य के समान वर्ण वाला और अज्ञानरूप मोहमय अन्धकार से सर्वथा अतीत है, वह परमात्मा है।"२१° महाभारत में परमात्मा का स्वरूप बताते हुए कहा गया है- “जो परम तेजस्वरूप है, जो परम महान् तपस्वरूप है, जो परम महानब्रह्म है, जो सबका परम आश्रय है।"२” प्रायः सभी दर्शनों में ईश्वर के अस्तित्त्व को स्वीकारा गया है, लेकिन उसके स्वरूप के विषय में सभी दर्शनों की मान्यता अलग-अलग है। "जैन, बौद्ध और गीता की परम्पराओं में ईश्वर को उपास्य के रूप में स्वीकृत किया है जैन परम्परा में उपास्य के रूप में अरिहंत और सिद्ध को माना है। ये उपास्य अवश्य है किंतु गीता के ईश्वर से भिन्न है, क्योंकि गीता का ईश्वर सदैव ही उपास्य है, जबकि अरिहंत और सिद्ध उपासक से उपास्य बने है। सिद्ध केवल उपासना के आदर्श हैं और अरिहंत उपासना, अर्थात् साधनामार्ग के उपदेशक हैं, किन्तु साधक स्वयं उस मार्ग पर चलकर आत्मस्वरूप को प्राप्त कर सकता है। उपास्य के स्वरूप का ज्ञान तथा उपासना दोनों ही अपने में निहित परमात्त्वतत्त्व को प्रकट करने के लिए है।"२१२ साधनों का आत्मा में एकत्व - किसी भी कार्य को सिद्ध करने के लिए साधनों की आवश्यकता होती है। बिना साधनों के साध्य को प्राप्त नहीं कर सकते हैं। राह पर चले बिना मंजिल तक नहीं पहुँच सकते हैं। २०. कविं पुराणमनुशासितार, मणोरमणोरणीयांस मनुस्मरेद्यः सर्वस्य धातारमचिन्त्य रूपमादित्य वर्ण तमसः परस्तात् -श्रीमद्भगवद्गीता -८/E ". परमं यो महत्तेजः यो महत्तपः परमं यो महदब्रह्म परमं यः परायणम् - महाभारत -४६/E २१२. जैन, बौद्ध और गीता के आचारों का तुलनात्मक अध्ययन -डॉ. सागरमल जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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