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________________ १४०/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री होने के कारण राग-द्वेष मोह, कामक्रोधादि भावरोगों से रहित परमस्वस्थ, निष्क्रिय, अर्थात् सब कर्मों का कर्महेतुओं का निःशेष रूप में नाश हो जाने के कारण सर्वथा क्रियारहित कृतकृत्य है। जन्म-मृत्यु आदि का वहाँ सर्वथा अभाव है।"२०७ आचार्य कुन्दकुन्द ने मोक्षपाहुड़ में परमात्मा का स्वरूप बताते हुए कहा है कि परमात्मा कर्मरूपी मल से रहित है। वे अतीन्द्रिय और अशरीरी हैं। नियमसार में कहा गया है कि परमात्मा सादिअनन्त, अमूर्त, अतीन्द्रिय स्वभाव वाले, केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलसुख और केवल शक्तियुक्त परमात्मा हैं। परमात्मा त्रिकाल, निरावरण, निरंजन तथा निज परमभाव को कभी नहीं छोड़ते हैं और संसारवृद्धि के कारणभूत विभाव पुद्गलद्रव्य के संयोगजनित रागादि परभाव को ग्रहण नहीं करते हैं। निरंजन, सहजज्ञान, सहजदृष्टि, सहजचारित्र आदि स्वभाव धर्मों के आधार-आधेय सम्बन्धी विकल्पों से रहित सदामुक्त हैं।०८। आचार्य हरिभद्रसूरि ने अष्टकप्रकरण में कहा है कि परमात्मा का स्वरूप पूर्णतः स्वतंत्र, औत्सुक्य अर्थात् आकांक्षारहित, प्रतिक्रियारहित, निर्विघ्न स्वाभाविक, नित्य, अर्थात् त्रैकालिक और भयमुक्त है।२०६ इस प्रकार अलग-अलग ग्रंथों में विविध प्रकार से परमात्मा का स्वरूप बताया गया है। ज्ञानार्णव ग्रंथ में शुभचंद्राचार्य ने परमात्मा की पहचान देते हुए बताया है कि निर्लेप, निष्कल, शुद्ध निष्पन्न अन्त्यन्त निवृत्त और निर्विकल्पक शुद्धात्मा परमात्मरूप है। इस प्रकार जैनदर्शन में प्रत्येक आत्मा को बीजरूप में परमात्मा माना गया है। उनका उद्घोष है- 'अप्पा सो परमप्पा।' जैनदर्शन ईश्वर को सृष्टि का कर्ता, उसका नियामक तथा संचालक नहीं मानते हैं। जबकि अन्य दर्शनों में ईश्वर को सृष्टि का कर्ता-धर्ता माना गया है। २०७. सदाशिवः परब्रह्म सिद्धात्मा तथातेति च शब्दैस्तदुच्यतेऽन्वर्थादेकमेवैवमादिभिः।।३०।। -योगदृष्टि समुच्चय -आचार्य हरिभद्रसूरि २०८ केवलणाणसहावो केवलदसणसहावसुहमइओ केवल-सत्तिसहावो सो हं इदि चिंतए णाणी ।।६६ ।। णियभावं णवि मुच्चइ परभावं णेव गेहए केइ । जाणदि पस्सदि सव्वं सो है इदि चिंतए णाणी ।।६७।। -नियमसार -आचार्य कुन्दकुन्द अपरायत्तमौत्सुक्यरहितं निष्प्रतिक्रियम् सुखं स्वाभाविक तत्र नित्यं भयविवर्जितम् ।।७।। -मोक्षाष्टकम्-३२, अष्टकप्रकरण -हरिभद्रसूरि २०१.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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