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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ १३६
मुक्ति में जाने वाले परमात्मा ने जैसे शारीरिक आसन में यहाँ पृथ्वीपीठ पर शरीर छोड़ा हो, ऐसे आसन के स्वरूप में उनकी आत्मा मुक्ति में उपस्थित होती है, इस दृष्टि से ईश्वर साकार है। किसी प्रकार का दृश्य रूप या मूर्त्तता नहीं होने से वह निराकार भी है। ज्ञानादि गुणों के स्वरूप के आश्रयरूपी है और मूर्त (पौद्गलिक) रूप की अपेक्षा से अरूपी है। अनन्तज्ञान, दर्शन, आनन्द आदि गुणों से गुणी है और सत्त्व, रज, तम गुणों के अत्यन्ताभाव से अगुणी है। ज्ञान से विभु है और आत्मप्रदेशों के विस्तार से अविभु है। जगत् से निराले होने के कारण भिन्न है और लोकाकाश में अनन्त जीवों और पुद्गलों के साथ संसर्गवान् होने से अभिन्न है। विचाररूप मन नहीं होने से अमनस्क है और शुद्धात्मोपयोग होने से मनस्वी है। प्रथम सिद्ध कौन हुआ, इसका पता नहीं होने से समुच्चय से सिद्ध भगवान् पुराने (अनादि) हैं और व्यक्ति की अपेक्षा से प्रत्येक सिद्ध 'नवीन' (सादि) है।
विशेषावश्यकभाष्य में कहा गया है- “मोक्ष में जाते हुए जीव को सम्यक् ज्ञान-दर्शन, सुख और सिद्धि के सिवाय, औदायिक भाव तथा भव्यत्व एक साथ नष्ट हो जाते हैं। दोनों नहीं रहते हैं, क्योंकि सिद्ध के जीव भव्य भी नहीं है और अभव्यव भी नहीं हैं।"२०५ उ. यशोविजयजी ने अध्यात्मसार में परमात्मा को 'शुद्ध प्रकृष्ट ज्योतिरूप बताया है तथा कहा है कि सत, चित और आनंदस्वरूप सूक्ष्म से सूक्ष्म, पर से पर ऐसी आत्मा मूर्तत्व को स्पर्श भी नहीं करती है। २०६ ।।
आचार्य हरिभद्रसूरि ने योगदृष्टि समुच्चय में परमात्मा और निर्वाण का एक ही स्वरूप बताते हुए कहा है कि विभिन्न नामों से कथित परमतत्त्व का वही लक्षण है, जो निर्वाण का है, अर्थात् वे एक ही हैं। “वह सदाशिव है- सब समय कल्याणरूप, परब्रह्म आत्मगुणों के परमविकास के कारण महाविशाल है, सिद्धात्माअर्थात् विशुद्ध आत्मसिद्धि प्राप्त, तथा सदा एक जैसे शुद्ध सहजात्मस्वरूप में संस्थित, निराबाध, अर्थात् सब बाधाओं से रहित, निरामय, अर्थात देहातीत होने के कारण दैहिक रोगों से रहित तथा अत्यन्त विशुद्ध आत्मस्वरूप में अवस्थित
२०५. तस्सोदइयाईया भवत्तं च विणियत्तए समयं
सम्मत्त-नाण-दसण-सुह सिद्धत्ताई मोत्तूणं ।।३०८७।। -विशेषावश्यकभाष्य प्रत्यम् ज्योतिषमात्मानमाहुः शुद्धतयाः खलु ।।३२।। आत्मासत्यचिदानन्द सूक्षमात्सूक्ष्मः परात्परः स्पृशत्यपि न मूर्तत्व तथा चोक्तं परेरपि ।।३६ ।। - अध्यात्मसार - उ. यशोविजयजी
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