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________________ उपाध्याय यशावजरूना का अध्यात्मवाद/ १३७ को जानने वाले, मनवचन काया के योगों का नाश करने वाले अनेक, एक, ज्ञानस्वरूप और निर्मल हैं। “१६६ अध्यात्मोपनिषद् में उ. यशोविजयजी ने परमात्मस्वरूप का विशेष प्रकार से निरूपण किया है। वे कहते हैं- "जितने गुणस्थानक हैं तथा जितनी मार्गणाएं हैं, इनमें से किसी के भी साथ परमात्मा का, या शुद्धात्मा का संबंध नहीं है।"२०० आगम में आत्मगण का विकासक्रम बताने के अभिप्राय से गुणस्थानक की व्यवस्था हैं, उसी प्रकार संसारी जीव की विविधता दिखाने की विवक्षा से मार्गणास्थान की व्यवस्था दर्शाई गई है। अतः सिद्धों में केवलज्ञान होने पर भी तेरहवाँ या चौदहवाँ गुणस्थानक सिद्धों को नहीं होने से उनमें सयोगीकेवली या अयोगीकेवली दशा भी स्वीकार नहीं करते हैं। जिस प्रकार गुणस्थानक प्रतिबद्ध अयोगीकेवलीदशा सिद्ध परमात्माओं में नहीं है, उसी प्रकार मार्गणास्थान प्रतिबद्ध केवलज्ञान, केवलदर्शन, अणाहारी अवस्था भी नहीं है, क्योंकि सिद्ध तो संसार से अतीत है और मार्गणाद्वार तो संसारी जीव का ही विभाग दिखाने के लिए है। इससे यह भी सूचित होता है कि विग्रहगति या केवलीसमुद्घात में जो अणाहारी अवस्था है, वह भी सिद्धों में नहीं है। सिद्धों में मार्गणा से सम्बन्धित अणाहारक दशा भी नहीं और आहारक दशा भी नहीं है। वे अणाहारक तो हैं, परंतु वह आत्मस्वभाव की अपेक्षा से है। इसी प्रकार गुणस्थान सापेक्ष केवलज्ञानादि उनमें नहीं हैं, परंतु आत्मस्वभावभूत केवलज्ञानादि तो है ही। षोडशक नामक ग्रन्थ में आचार्य हरिभद्रसूरि ने परमात्मा के स्वरूप का वर्णन करते हुए २३ विशेषण दिए हैं। "परमात्मा शरीर इन्द्रियादि से रहित, अचिंत्य गुणों के समुदाय वाले, सूक्ष्म, त्रिलोक के मस्तकरूप सिद्धक्षेत्र में रहे हुए, जन्मादि संक्लेश से रहित, प्रधान ज्योतिस्वरूप, अंधकार से रहित, सूर्य के वर्ण जैसे निर्मल, अर्थात् रागादि मल से शून्य, अक्षर (स्वभाव से कभी भी च्युत नहीं होने से अच्युत), ब्रह्म, नित्य, प्रकृतिरहित, लोकालोक को जानने तथा देखने के उपयोग वाले, निस्तरंग, समुद्र जैसे वर्णरहित, स्पर्शरहित, अगुरुलघु सभी पीड़ाओं से १६. त्वामव्ययं विभुमचिंत्यमसंख्यमाद्यं ब्रह्माणमीश्वरमंनंतमनंगकेतुम्। योगीश्वरम् विदितयोगमनेकमेकं, ज्ञानस्वरुपममलं प्रवदन्ति सन्तः ।।२४।। -भक्तामर स्तोत्र -मानतुंगाचार्य गुणस्थानानि यावन्ति यावन्त्यश्चापि मार्गणाः तदन्यतरसंश्लेषो, नैवातः परमात्मनः ।।२८।। -अध्यात्मोपनिषद् -उ. यशोविजयजी २०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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