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१३६/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
ऐसा साधक साधना करते-करते साध्य परमात्म स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। साधक के स्वरूपकथन के पश्चात् साध्य परमात्मा के स्वरूप का वर्णन है।
साध्य परमात्मा का स्वरूप समस्त आध्यात्मिक साधनाओं का मूल उद्देश्य आत्मस्वरूप की प्राप्ति है। जैनदर्शन में प्रत्येक जीवात्मा को परमात्मस्वरूप माना गया है। साध्य परमात्मा और साधक जीवात्मा- दोनों तत्त्वतः एक ही हैं। जब तक आत्मा संसार की मोहमाया के कारण कर्ममल से आच्छादित है, तब तक वह बादल से घिरे हुए सूर्य के समान है। आत्मा के परमात्वस्वरूप को जिन कर्मों ने आवरण बन कर ढंक लिया है, वे कर्म आठ प्रकार के हैं। जिस प्रकार बादल का आवरण हटते ही सूर्य अपना दिव्य तेज पृथ्वी पर फैलाता है, उसी प्रकार साधना करते हुए जब कों का आवरण सम्पूर्ण रूप से दूर हो जाता है, तब आत्मा अनन्तानन्त आध्यात्मिक शक्तियों का पुंज बनकर शुद्ध-बुद्ध, परमात्मस्वरूप को प्राप्त कर लेती है। मानवीय चेतना का चरम विकास ही ईश्वर है।
परमात्मा के दो भेद किए गए हैं -१. अरिहन्त २. सिद्ध। अरिहन्त परमात्मा सशरीर हैं और सिद्ध परमात्मा अशरीरी हैं। उपाध्याय यशोविजयजी परमात्मस्वरूप का चित्रण करते हुए कहते हैं कि जब केवलज्ञान होता है, तब अरिहन्त पद प्राप्त होता है। अरिहन्त परमात्मा जब यह जानते हैं कि आयुष्य पूर्ण होने वाली है, तब वे योगनिरोधरूप शैलेशीकरण की प्रक्रिया करते हैं, उस समय वे चौदहवें गुणस्थानक में अयोगीकेवली होते हैं। उसके बाद वे अशरीरी सिद्धात्मा के स्वरूप को प्राप्त कर सिद्ध परमात्मा बनते हैं। मानतुंगसूरि भक्तामरस्तोत्र में ऋषभदेव परमात्मा के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहते हैं- “परमात्मा अविनाशी, ज्ञानापेक्षा विश्वव्यापी, अचिंत्य आदि ब्रह्म ईश्वर, अनंत, सिद्धपद को सूचित करने वाले, अनंगकेतु कामविजेता योगी, योग
८. ज्ञानं केवलसज्ञं योगनिरोधः समग्रकर्महतिः
सिद्धिनिवासश्च यदा परमात्मा स्यात्तदा व्यक्तः।।२४।। - अनुभवाधिकार, अध्यात्मसार -उ.यशोविजयजी
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