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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ १३५
बारह व्रत वाले भी होते हैं। इस प्रकार सर्वविरति चारित्र वाले मुनि भी कोई सामायिक चारित्र वाले, कोई छेदोपस्थापनीय चारित्र वाले, कोई परिहारविशुद्धिचारित्र वाले, कोई सूक्ष्मसंपरायचारित्र, तो कोई यथाख्यातचारित्र वाले होते हैं। इस प्रकार साधक का स्वरूप क्षयोपशम भेद से तरतमता वाला होता है, परंतु सिद्धावस्था में क्षायिकभाव होने से सभी समान होते हैं।
उपाध्याय यशोविजयजी ने अध्यात्मोपनिषद् में साधक की निम्न तथा उच्च- दोनों कक्षाओं का भेद बताते हुए कहा है कि प्राथमिक साधक को योग की प्रवृत्ति से प्राप्त हुए सुस्वप्न, जनप्रियत्व आदि में सुख का संवेदन होता है, क्योंकि उसे पदार्थों का यथावस्थित स्वरूप ज्ञात नहीं है और आत्मा के आनंद का अनुभव भी नहीं है। जिसने ज्ञानयोग को सिद्ध कर लिया है, ऐसे योगी पुरुष को तो आत्मा में ही सुख का संवेदन होता है, क्योंकि उसकी आत्मा की ज्योति स्फुरायमान है।'६५ ज्ञानसार में भी १२ वें गुणस्थानक पर पहुँचे हुए साधकों की अवस्था का वर्णन करते हुए कहा गया हैं कि स्वाभाविक सुख में मग्न और जगत के तत्त्वों स्यादुवाद से परीक्षा करके अवलोकन करने वाली आत्मा अन्य भावों का कर्ता नहीं होती है, परंतु साक्षी होती है।६६
जो जितेन्द्रिय है, धैर्यशाली है और प्रशान्त है, जिसकी आत्मा स्थिर है, और जिसने नासिका के अग्रभाग पर अपनी दृष्टि स्थापित की है, जो योग सहित है और अपनी आत्मा में ही स्थित है, ऐसे ध्यानसम्पन्न साधकों की देवलोक और मनुष्यलोक में भी वास्तव में कोई उपमा नहीं है।'
१५. योगारम्भदशास्थस्य दुःखमन्तर्बहिः सुखम् ..
सुखमन्तर्बहिर्दुखं, सिद्धयोगस्य तु ध्रुवम् ।।१०।। -अध्यात्मोपनिषद-उ. यशोविजयजी ५. स्वभावसुखमग्नस्य जगत्तत्त्वावलोकिनः
कर्तृत्वं नान्यभावानां साक्षित्वमवशिष्यते।।३।। -मग्ननाष्टक -२ ज्ञानसार -उ. यशोविजयजी १७. जितेन्द्रियस्य धीरस्य प्रशान्तस्थ स्थिरात्मनः
सुखासनस्थस्य नासाग्रन्थस्तनेत्रस्य योगिनः।।६।। साम्रात्यमप्रतिद्वन्द्वमन्तरेव वितन्वतः
ध्यानिनो नोपमा लेकि, सदेवमनुजेऽपि हि।।। -ज्ञानसार -ध्यानाष्टक (३०) -उ. यशोविजयजी
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