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१३४/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
अनादिकालीन रागद्वेष की ग्रन्थि का भेद होने के बाद आत्मा में स्वतः ही तत्त्व के विषय में तीव्र बहुमान भाव जागता है।
उ. यशोविजयजी ने अध्यात्मसार में सम्यक्त्व के पाँच लक्षण बताए हैं। शम, संवेग, निर्वेद, आस्तिक्य और अनुकंपा।१६३ ३. चारित्रवान् -
साधक की तीसरी अवस्था तथा चौथी अवस्था चारित्रवान् की होती है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने चारित्रवान् के लक्षण इस प्रकार बताए है-(१) मार्गानुसारी (२) श्रद्धावान (३) प्रज्ञापनीय (४) क्रिया करने में तत्पर (५) गुणानुरागी और (६) सामर्थ्यानुसार धर्मकार्यों में रत।१६ इस अवस्था में पहुँचा हुआ साधक सम्यक्त्व प्राप्त होने से दर्शनमोहनीय का क्षयोपशम कर चुका होता है। चारित्रमोहनीयकर्म में देशविरति और सर्वविरति का प्रतिबंध करने वाले ऐसे अप्रत्याख्यान तथा प्रत्याख्यानकषाय तथा उनको सहयोग देने वाले नौ नोकषाय (४+४+६), इन १७ प्रकृति का क्षयोपशम विशेष होने से अनंत उपकारी तीर्थंकर के द्वारा बताए हुए त्यागमय संयममार्ग का अनुसरण करने की बुद्धि आत्मा में उत्पन्न होती है। वीतरागमार्ग का अनुसरण करने वाले को अवश्य तत्त्वज्ञान की प्राप्ति होती है। यह मोक्ष का साधकतम कारण है, इसलिए मार्गानुसारिता चारित्री का प्रथम लिंग कहा गया है।
धरती में छुपे हुए भंडार को प्राप्त करने में प्रवृत्त व्यक्ति को शकन देखना, इष्ट देवों का स्मरण करना आदि विधियों में जैसे अपूर्व श्रद्धा होती है, वैसे ही मार्गानसारी व्यक्ति को अनंत ज्ञानादि गुणों की प्राप्ति की इच्छा होती है। उसे मोक्षमार्ग बताने वाले आप्त पुरुषों के प्रति अतिशय श्रद्धा होती है। उसे भोगों के प्रति उदासीनता होती है। वह गुरु के प्रति समर्पित, सरल और नम्र होता है, जिससे गुरु भी उसे शिक्षा के योग्य मानता है। वह आत्मा हितकारी धर्मकार्य करने में सदा तत्पर रहती है।
चारित्रवान आत्मा देशविरति और सर्वविरति के भेद से अनेक प्रकार की होती है। देशविरति गृहस्थ भी कोई एक व्रत वाले, कोई दो व्रत वाले, यावत् कोई
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शमसंवेगनिर्वेदानुकंपाभिः परिष्कृतम् दधतामेतदच्छिनं सम्यक्त्वं स्थिरतां व्रजेत-अध्यात्मसार -उ. यशोविजयजी मग्गाणुसारी सद्धो पण्णवणिज्जो क्रियापरी चेव । गुणरागी सक्कारंभसंगओ तह य चारित्ती ।।१५।। - योगशतक-आचार्य हरिभद्रसूरि
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