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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / १३३
पुनः एक भी बार कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति को नहीं बांधने वाले जीव को अपुनर्बन्धक कहते हैं। यह साधक की प्रारंभिक अवस्था है। निकाचित चिकने कर्म बँधे, वह ऐसे तीव्र भाव से पाप नहीं करता है। कभी कोई समय ऐसे पाप करने का प्रसंग भी आए, तो उस प्रकार के पूर्व में बाँधे हुए कर्मों के उदय की परवशता के कारण ही करता है, परंतु स्वयं की रसिकता से पाप नहीं करता है । संसार असार है, भयंकर है, अनंत दुःखों की खान है; यह समझकर सांसारिक प्रवृत्तियों को हृदय से बहुमान नहीं देता है । इस अवस्था में साधक मार्गानुसारिता के अभिमुख हो 'मयूरशिशु' की तरह अपुनर्बन्धक कहलाता है । मयूर - शावक बराबर माता के पीछे चलता है, उसी प्रकार आत्मा भी सरल परिणामी बनने से बराबर मोक्ष मार्ग के अभिमुख होकर चलती है।
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सम्यग्दृष्टि
रागद्वेष का ग्रन्थिभेद करने के बाद साधक को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने सम्यग्दृष्टि जीव के भी तीन लिंग बताए हैं। १. सुश्रूषा २. धर्मराग और ३. चित्त की समाधि ””।
सम्यग्दृष्टि जीव को धर्मशास्त्र सुनने की अत्यंत उत्कण्ठा होती है। उपाध्याय यशोविजयजी ने सम्यक्त्व के सड़सठ बोल की सज्झाय में कहा है
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सम्यग्दृष्टि जीव के धर्मराग के विषय में कहा गया है कि दरिद्र ब्राह्मण को यदि घेवर का भोजन मिले, तो उसे उस भोजन पर अतिराग होता है, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि को उससे भी अधिक राग धर्मकार्य में होता है।
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तरुण सुखी स्त्रीपरिवर्यो रे, चतुर सुणे सुरगीत
तेह थी रागे अतिघणे रे, धर्म सुण्या नी रीत रे ।। प्राणी । । १२
पावन तिव्वभावा कुणइ ण बहुमण्णई भवं घोरं
उचियद्विरं च सेवइ सव्वत्य वि अपुणबंधो त्ति ।। १३ ।। - योगशतक -आचार्य हरिभद्रसूरि सुस्सूस धम्मराओ गुरूदेवाणं जहासमाहीए
वेयावच्चे, नियमो सम्मदिट्ठिस्स लिंगाइ ||१४|| - योगशतक- आचार्य हरिभद्रसूरिश्वर भूख्यो अटवी उतर्यो रे, जिमद्विज घेवर चंग
इच्छेतिम जे धर्म ने रे, तेहि ज बीजु लिंग रे । प्राणी ।। १३
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- सम्यक्त्व की सड़सठ बोल की सज्झाय - उ. यशोविजयजी
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