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________________ १३२/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री कि रसलोलुपता का अभाव, आरोग्य, अनिष्ठुरता, मलमूत्र की अल्पता चेहरे पर कान्ति एवं प्रसन्नता, सौम्य स्वर, विषयों में अनासक्ति, प्रभावकता और मैत्र्यादि भावना से युक्त मनोवृत्ति, रति-अरति से अपराजित, उत्कृष्ट जनप्रियत्व विनम्रता, शरीर का आल्हादक वर्ण आदि साधना की प्राथमिक अवस्था के लक्षण हैं। योगसिद्ध पुरुषों में दोषों का अभाव, आत्मानुभवजन्य परमतृप्ति और समता होती है। उनके सान्निध्य से तो वैरियों के वैर का भी नाश हो जाता है।" ___साधना के क्षेत्र में साधक को अपनी आत्मशक्ति व्यक्त करने के लिए अशुभ से शुभ में और शुभ से शुद्ध में जाना होता है। इस दौरान साधक अनेक अवस्थाओं से गुजरता है। उपाध्याय यशोविजयजी ने अध्यात्म के अधिकारी पुरुष में तीन बातें होना आवश्यक बताया है। १. मोह की अल्पता २. आत्मस्वरूप की ओर अभिमुखता तथा ३. कदाग्रह से मुक्ति। मूंग के पकने की क्रिया में जैसे समय जाता है; प्रथम अल्पपाक, फिर कुछ अधिक पाक- इस तरह वे बीस पच्चीस मिनिट में पूर्णतः पकते हैं, उसी प्रकार साधक भी योग्य उपायोंपूर्वक प्रवर्तन करते हुए क्रमशः- अपुनर्बन्धक की प्राप्ति, ग्रन्थिभेद; सम्यक्त्व की प्राप्ति, क्षपक श्रेणी, वीतराग अवस्था तक पहुँचता है। बारहवें गुणस्थानक तक की अवस्था साधक अवस्था कहलाती है। १. अपुनर्बन्धक - अपुनर्बन्धक आचार्य हरिभद्रसूरि ने योगशतक में 'अपुनर्बन्धक' के तीन लक्षण बताए हैं (१) वह तीव्र भाव से पाप नहीं करता है। (२) संसार के प्रति बहुमान नहीं रखता है। (३) सर्वत्र उचित आचरण करता है।६० अलौल्यमारोग्यमनिष्ठुरत्वं गन्धः शुभो मूत्र-पुरीषमल्पम् कान्तिः प्रसादः स्वरसौम्यता च योग प्रवृत्तेः प्रथमं हि चिन्हम - (अ) शार्गधर पद्धति (ब) स्कन्दपुराण (माहेश्वरखण्ड-कुमारिकाखण्ड ५५/१३८) गलन्नययकृतभ्रान्तिर्यः स्याद्विश्रान्तिसम्मुखः स्याद्वादविशदालोकः स एवाध्यात्मभाजनम् ।।५।। - अध्यात्मोपनिषद् - उ. यशोविजयजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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