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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ १३१
चतुर्थ अध्याय
अध्यात्मवाद में साधक, साध्य और साधन-मार्ग का परस्पर सम्बन्ध
साधक जीवात्मा का स्वरूप आत्मा सूर्य के समान तेजस्वी है, किन्तु वह कर्म की घटाओं से घिरी हुई है, जिससे उसके दिव्य प्रकाश पर आवरण आ चुका है। उसका विशुद्ध स्वरूप लुप्त हो चुका है। विश्व की प्रत्येक आत्मा में शक्ति का अनंत स्रोत प्रवाहित है। जिसे अपनी आत्मशक्ति पर विश्वास हो जाता है और जो अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करने के लिए, अर्थात् विभाव-दशा को छोड़कर स्वभाव में
आने के लिए पुरुषार्थ आरंभ करता है, वह साधक कहलाता है। खान में से निकले हीरे की चमक अल्प होती है, परंतु जब उसे अनेक प्रकार की प्रक्रियाओं से स्वच्छ कर तराश दिया जाता है, तो उसकी चमक बढ़ जाती है। ठीक उसी प्रकार आत्मा की प्रथम अवस्था कर्म से मलिन अवस्था है, किन्तु विभिन्न प्रकार की साधनाओं द्वारा निर्मलता को प्राप्त करते हुए वही साधक परमात्मदशा को भी प्राप्त कर लेता है। उपाध्याय यशोविजयजी ने अध्यात्मोपनिषद् में कहा है“साधना की प्राथमिक अवस्था में साधक इन्द्रियों के विषयों का अनिष्ट बुद्धि से त्याग करता है। साधना के उच्च शिखर पर पहुँचा हुआ, अर्थात् योगसिद्ध पुरूष न तो विषयों का त्याग करते हैं और न उन्हें स्वीकार ही करते हैं, किन्तु उनके यथार्थ स्वरूप के दृष्टा रहते हैं।" ८७ साधक के लक्षण शार्गधर पद्धति, स्कन्दपुराण और श्वेताश्वतरोपनिषद् आदि जैनेतर ग्रन्थों में इस प्रकार बताया है
१६७. विषयान साधकः पूर्वमनिष्टत्वधिया त्यजेत .. न त्यजेन्न च गृहणीयात् सिद्धो विन्द्यात् स तत्वतः - अध्यात्मोपनिषद् उपाध्याय यशोविजयजी
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