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१३०/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
प्रकरण में जीव के छः लक्षण-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग बताए
गए है।"८६
वीर्य के योग, उत्साह, बल, पराक्रम, शक्ति आदि रूप हैं। साधना के क्षेत्र में वीर्याचार पुरुषार्थ रूप में है। वह स्वशक्ति का प्रकटीकरण है, अतः वह प्रवृत्ति का परिचायक और विधिरूप है। उत्तराध्ययनसूत्र में साधक के लिए ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा तप के क्षेत्र में जिस पुरुषार्थ के लिए प्रेरणा दी गई है, वही वीर्याचार है। अरिहंतों तथा सिद्धों को वीर्यान्तयकर्म के क्षय से संपूर्ण एक जैसा अनंत लब्धिवीर्य प्रकट होता है। यह वीर्य सभी जीवद्रव्य में होता है और जीवद्रव्य के सिवाय अन्य द्रव्य में नहीं होता है, इसलिए वीर्यगुण जीव का लक्षण है, अर्थात् विशेष रूप से जो तत्-तत उन उन क्रियाओं में प्रवर्तन करता है, वह वीर्य कहलाता है।
कोई यह प्रश्न करें कि वीर्य, अर्थात शक्ति तो पुद्गलद्रव्य में भी है, तो फिर वीर्य जीव का लक्षण कैसे? इसका उत्तर यह है कि सामान्य शक्तिधर्म तो सभी द्रव्यों में होता ही हैं, किन्तु सामान्य शक्तिधर्म को वीर्य नहीं कहते हैं। योग, उत्साह, पराक्रम आदि पर्यायों का अनुसरण करता हुआ वीर्यगुण तो आत्मद्रव्य में ही होता है, इसलिए वीर्य भी जीव का गुण है।
आत्मा की जो शक्तियाँ तिरोहित हैं, उन्हीं शक्तियों को प्रकट करने के लिए अन्तरात्मा पुरुषार्थ करते हुए आध्यात्मिक विकास-मार्ग में आगे बढ़ती है। आत्मा में सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक् चारित्र एवं सम्यकत्वरूपी दीप के प्रज्ज्वलित होने पर ज्ञानावरणीय आदि घातीकों के आवरण हट जाते हैं तथा अनन्तचतुष्टय का प्रकटन होता है और आत्मा अन्तरात्मा से परमात्मा बन जाती है।
१८६. नाणं च दंसणंचेव चारित्तं च तवो तहा
वीरियं उपओगो य, एवं जीवस्स लक्खणं ।।५।। नवतत्वप्रकरण
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