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१२८/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
प्रयत्न करते हैं, किन्तु सभी का सुख एक ही कोटि का नहीं होता है। एक जीव भी सर्वकाल में एक जैसा सुख भोगते हुए नहीं दिखता है। उसमें तरतमता रहती है। शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक सुख में भी तरतमता देखने को मिलती है। जहाँ तरतमता हो, वहाँ कोई न कोई अन्तिम स्थिति तो होना ही चाहिए। तर्क से इस स्थिति का विचार करें, तो अंत में अनंतसुख तक पहुँच जाएंगे। अनंत आत्मिक सुख से ऊपर कुछ नहीं है।'६०
सुख आत्मा का भावनात्मक पक्ष है। यदि आनंद को आत्मा का स्वलक्षण नहीं मानकर आत्मा से बाह्यतत्त्व माना जाए, तो फिर जीवन का साध्य आन्तरिक न होकर बाह्य होगा। यदि आनन्द क्षमता, आत्मगत न होकर वस्तुगत होगी तो सुखों की उपलब्धि बाह्य साधनों पर निर्भर होगी, किन्तु यह बात अध्यात्मशास्त्र के विरूद्ध जाती है। जीवन में हम यह अनुभव करते है कि आनंद का प्रत्यय पूर्णतः बाह्य नहीं है। असन्तुलित या तनावपूर्ण चैतसिक स्थिति में सुख के बाह्य साधनों के होते हुए भी व्यक्ति सुखी नहीं होता है। ज्ञानसार में भी कहा गया है- “जिस धन-धान्य को पाकर कृपण लोग पूर्णता का अनुभव करते हैं, उन्हीं बाह्य पदार्थों की उपेक्षा करके ज्ञानी पुरुष पूर्णता का अनुभव करते हैं।"६१ आनंद तो आत्मा का ही लक्षण है बाह्य साधनों के द्वारा प्राप्त सुख से व्यक्ति पूर्णतः वास्तविक सुखी नहीं हो सकता है। उ. यशोविजयजी कहते हैं- “पर पदार्थों में स्वत्व की कल्पना से व्यग्र बने राजा भी सदैव अपने-आपको अपूर्ण ही मानते हैं। इच्छाएँ सदा जाग्रत रहती हैं, जबकि आत्मिक सुख से पूर्ण मुनि इन्द्र से भी अधिक सुखी है।"८२ अनंतसुख अतीन्द्रिय. सुख है, पर की अपेक्षा से रहित है।
___ भारतीय दर्शनों में न्यायवैशेषिक एवं सांख्य विचारधाराएँ सौख्य को आत्मा का स्वलक्षण नहीं मानती हैं। सांख्यदर्शन के अनुसार आनन्द सत्वगुण का ही परिणाम है, अतः वह प्रकृति का ही गुण है- आत्मा का नहीं।
१८०. सुखस्य तारतम्येन प्रकर्षस्यापि संभवात्
अनंतसुखसंवित्तिर्मोक्षः सिध्यति निर्भयः ।।७६ । मिथ्यात्वत्यागाधिकार -अध्यात्मसार -उ.
यशोविजयजी १८१. पूर्यन्ते येन कृपणा -स्तदुपेक्षैव पूर्णता
पूर्णानन्दसुधास्निग्धा, दृष्टिरेषा मनीषिणाम् ।।५ । पूर्णताष्टक -ज्ञानसार -उ. यशोविजयजी १८२. परस्वत्वकृतोन्माधा, भूनाथान्यून तेक्षिणः ।
स्वस्वत्वसुखपूर्णस्य, न्यूनता न हरेरपि ।।७।। -पूर्णताष्टक -ज्ञानसार -उ. यशोविजयजी
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