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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / १२७ उपाध्याय यशोविजयजी ने इस अनुपम अनंतज्ञान के विषय में ज्ञानसार में कहा है- “ जन्म मरण का हरण करने वाला रसायन होने पर भी औषधियों से भिन्न है, अन्य की अपेक्षा के बिना का ऐश्वर्य तथा स्व पर प्रकाशक दिव्य ज्ञान है।' १७६ यह सम्पूर्ण रूप से आवरण का विलय होने से प्रकट होता है, इसलिए यह शुद्ध है। प्रथम से ही सम्पूर्ण रूप से प्रकट होता है, इसलिए सकल है। उसके समान दूसरा कोई ज्ञान नहीं होने से असाधारण अद्वितीय है । अनंत ज्ञेय विषयों को जानता है तथा अनंतकाल तक रहने वाला है, इसलिए अनंत है। लोक - अलोक में सर्वत्र ज्ञेयपदार्थों को देखने में इस ज्ञान को किसी प्रकार का. व्याघात ( स्खलना) नहीं होता है, इसलिए यह निर्व्याघात है। केवलज्ञान के समय मति आदि ज्ञान नहीं होते हैं, इसलिए एक है। १७७ आचार्य कुन्दकुन्द ने नियमसार के शुद्धोपयोग अधिकार में सिद्धों की सर्वज्ञता के सम्बन्ध में कहा गया है, वे व्यवहारनय की अपेक्षा से वे समस्त लोकालोक के सभी पदार्थों को सहज भाव से देखते और जानते हैं, किन्तु निश्चयनय की अपेक्षा से तो वे अपने आपके स्वरूप को देखते और जानते हैं। १७८ परमात्मप्रकाश में कहा गया है कि जो आत्मा के निर्मलतम सर्वज्ञ स्वरूप का चिन्तन करता है, वह परमात्मा को प्राप्त करता है । ' १७६ अनंतसुख भी आत्मा का स्वलक्षण है। यह मोहनीयकर्म के नष्ट होने से प्रकट होता है। इस संसार में सभी जीव सुख चाहते हैं और सुख के लिए ही १७६. पीयुषसमुद्वोत्थं, रसायनमनौषधम् अनन्यापेक्षमैश्वर्यं ज्ञानमाहुर्यनीषिणः ।। ८ ।। -ज्ञानाष्टक - ज्ञानसार - उ. यशोविजयजी १७७. कर्मविपाक प्रथम कर्मग्रन्थ - पेज ६३, विवेचन - धीरजलाल जह्यालाल १७८. जाणदि पस्सदि सत्वं ववहारणएव केवली भगवं केवलणाणी जाणदि पस्सदि नियमेण अप्पाणं - १५६ - शुद्धोपयोगाधिकार - नियमसार - आचार्य कुन्दकुन्द १७६. परमात्मप्रकाश - ७५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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