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________________ १२६/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री झलकता है, जैसे दर्पण में वस्तुएँ प्रतिबिम्बित होती हैं", अर्थात् सर्वद्रव्य, सर्वक्षेत्र, सर्वकाल और सर्व भावों को जानने की क्षमता वाला यह ज्ञान है। उ. यशोविजयजी ने अध्यात्मोपनिषद् में भी विशुद्ध चैतन्य को दर्पण की उपमा दी है। इसके पीछे चार प्रयोजन हैं१. जैसे दर्पण के सामने कोई सुन्दर वस्तु आती है, तब उसका सुंदर प्रतिबिम्ब बताने पर भी दर्पण को उसके प्रति राग नहीं होता है और जब उसके सामने असुन्दर वस्तु आती है, तब उसका असुंदर प्रतिबिम्ब बताते हुए भी दर्पण को उसके प्रति द्वेष नहीं होता है; ठीक उसी प्रकार अनंतज्ञान तथा अनन्तदर्शन द्वारा शुभ-अशुभ द्रव्यों एवं उनके गुण- पर्यायों को शुभ या अशुभ रूप में जानने पर भी, आत्मा का शुद्ध चैतन्य स्वरूप उसके प्रति राग-द्वेष की परिणति से दूषित नहीं होता है। जैसे दर्पण वस्तु को प्रतिबिम्बित करने पर भी उससे प्रभावित नहीं होता है, उसी प्रकार आत्मा शुभाशुभ भावों को जानने पर भी उनका परिग्रहण नहीं करती है। जैसे निर्मल काँच में वस्तु जैसी हो, वैसी ही प्रतिबिम्बित होती है, दर्पण वस्तु के स्वरूप को विकृत करके नहीं बताता है; उसी प्रकार आत्मा का शुद्धज्ञान (चैतन्य) भी सर्व प्रशस्त-अप्रशस्त द्रव्यों के गुण -पर्यायों को जैसे वे हों, उन्हें वैसा ही बताता है। ४. दर्पण वस्तु के यथार्थ स्वरूप को हानि बताता है, तो उसके निमित्त से न तो वह वस्तु के स्वरूप को हानि पहुँचती है और न दर्पण को उसी प्रकार शुद्ध आत्मा द्रव्य-गुण पर्यायों को जानती है, किन्तु उनके निमित्त से उन द्रव्य-गुण पर्यायों को किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचती है और न आत्मा में कोई विकार होता है। १७४. षड्खण्डागम -१५/५/५/८२ १७५. चिद्दर्पणप्रतिफलत्रिजगतद्विवर्ते, वर्तेत किं पुनरसौ सहजात्मरुपे।।६०।। -अध्यात्मोपनिषद् -उ. यशोविजयजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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