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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ १२५
इस प्रकार विभाव एक विकृति है, एक बीमारी है। जैनधर्म की सम्पूर्ण साधना वस्तुतः इस आत्मिक विकृति की चिकित्सा का प्रयल है, जिससे हमारी चेतना विभाव से स्वभाव की ओर लौट आए। उपाध्याय यशोविजयजी ने अध्यात्मोपनिषद् में जिन चार योगों का निरूपण किया है, वह वस्तुतः आत्मा को विभाव से हटाकर स्वभाव में स्थित करने के लिए ही है। उनका अध्यात्मवाद विभाव की चिकित्सा कर स्वभाव में स्थित होना है। दूसरे शब्दों में, आत्मा को स्वस्थ बनाने का एक उपक्रम है, क्योंकि “स्वभावदशा को प्राप्त करना ही परम अध्यात्म है, यही परम अमृत है, यही परम ज्ञान है और यही परम योग है।"७३
अनंतचतुष्टय संसारी आत्मा आठ कर्मों से बद्ध है। इनमें चार घातीकर्म तथा चार अघातीकर्म होते हैं। जब जीव मुक्तियोग्य साधनों द्वारा चार घातीकर्मों का क्षय करता है, तब निम्न अनंतचतुष्टय का प्रकटन होता है -१. अनन्तज्ञान २. अनन्तदर्शन ३. अनन्तसुख और ४. अनन्तवीर्य (शक्ति)।
आत्मा में अनंत गुण हैं, जिसमें ज्ञान और दर्शन- ये दो गुण सबसे अधिक मुख्य गुण हैं, क्योंकि यह आत्मा केवलज्ञान और केवलदर्शन द्वारा ही वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जान सकती है। जब ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म का क्षय होता है तब आत्मा के अनंतज्ञान और अनंतदर्शन गुण प्रकट हो जाते है।
आत्मा में अनंतज्ञान द्वारा अनंतगण एवं पर्यायसहित जीवादि समस्त द्रव्यों को प्रत्यक्ष जानने की क्षमता प्रकट हो जाती है तथा अनंतदर्शन द्वारा उनका सामान्य अवलोकन करती है। ऐसी आत्मा को सर्वज्ञ, सर्वदर्शी भी कहते हैं। अनंतज्ञान को केवलज्ञान तथा अनंतदर्शन को केवलदर्शन भी कहते हैं। यह ज्ञान क्षायिक होता है तथा प्रत्यक्षज्ञान कहलाता है, क्योंकि यह इन्द्रियों की सहायता के बिना ही होता है। दूसरे शब्दों में “यह विश्व ज्यों का त्यों उनके ज्ञान में वैसे ही
१७३. इदं हि परमाध्यात्मममृर्त ह्याद एव च
इदं हि परमं ज्ञानं, योगोऽयं परमः स्मत:-आत्मनिश्चयाधिकार -अध्यात्मसार - उ. यशोविजयजी
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