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________________ १२४/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री समझ लेना आवश्यक है कि जिस प्रकार निर्मल दर्पण में वस्तुएँ प्रतिबिम्बित होती है, लेकिन उससे दर्पण में कोई विकार नहीं आता है, उसी प्रकार ज्ञेय के आत्मा में प्रतिबिम्बित होने पर भी यदि आत्मा में कोई विकार नहीं आता है, तो वह आत्मा की स्वभाव-अवस्था है। उपाध्याय यशोविजयजी कहते हैं- “आत्मस्वभाव की प्राप्ति के बाद कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं रहता है। आत्मवैभव से सम्पन्न साधु निःस्पृह होता है। उसमें इच्छा का अभाव होता है।" आत्मस्वरूप का लाभ ही वास्तविक लाभ है। 'पर' पर 'स्व' का आरोपण करने रूप मिथ्याभाव से ही विभाव का जन्म होता है। यह सत्य है कि ज्ञान के लिए ज्ञेय की अपेक्षा होती है, किन्तु उस ज्ञेय तत्त्व के सम्बन्ध में जब तक चेतना में रागादि कषायभाव उत्पन्न नहीं होते है, आत्मा में विकार नहीं जगते, तब तक वह ज्ञेय तत्त्वज्ञान का हेतु होकर भी विभाव का कारण नहीं बनता है; इसलिए जैनदर्शन में आत्मा के ज्ञातादृष्टाभाव या साक्षीभाव को आत्मा का स्वभाव कहा गया है। उपाध्याय यशोविजयजी कहते हैं"जैसे निर्मल आकाश में, आँख में तिमिर नामक रोग होने से नीली-पीली आदि रेखाओं से चित्रित आकार दिखाई देता है, उसी प्रकार शुद्ध आत्मा में रागादि अशुद्ध अध्यवसाय. रूप विकारों द्वारा अविवेक से विकार रूप विचित्रता भासित होती है।"७२ निश्चयनय से अखण्ड होने पर भी पर के साथ एकरूप होने पर विकार वाली आत्मा दिखाई देती है। स्वभाव आत्मा की स्वस्थता है, क्योंकि वह स्व में स्थित होती है, जबकि विभाव आत्मा की विकृत अवस्था का सूचक है। विभाव आध्यात्मिक रोग है, क्योंकि उसके कारण चेतना का ममत्व भंग होता है। चेतना में तनाव उत्पन्न होते हैं, जो सर्वप्रथम व्यक्ति के चित्त को उद्वेलित करते हैं, किन्तु वही उद्वेलित चित्त आगे जाकर परिवार, समाज और राष्ट्र की शांति को भी भंग करता है। निज घर में प्रभुता है तेरी, पर संग नीच कहाओ. प्रत्यक्ष रीत लखी तुम ऐसी, गहिये आप सुहावो। १७१. स्वभावलाभात् किमपि, प्राप्तव्यं नाऽवशिष्यते। इत्यान्मैश्वर्य सम्पन्नो, निःस्पृहो जायते मुनिः।।१।। -निस्पृह -अष्टक -१२-ज्ञानसार-उ. यशोविजयजी १७२. शुद्धेऽपि व्योम्नि तिमिराद् रेखाभिर्मिश्रता यथा। विकारैर्मिश्रता भाति, तथाऽत्मन्यविवेकतः ।।३।। - विवेक अष्टक -१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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