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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ १२३ अनादि अतीतकाल से संसारी जीव का स्वभाव आत्मिकसुख ज्ञानावरणादि कर्मों से ढंका हुआ है। जब तक आत्मा स्वरूप से अनभिज्ञ रहती है, तब तक पौद्गलिक भौतिक वर्ण, गन्ध, रस स्पर्श में ममत्व करते हुए उसमें डूबी रहती है, ठीक उसी तरह जैसे भेड़ों में पला सिंह- शावक। “एक सिंह-शावक भेड़ों का दूध पीकर भेड़ों के साथ ही रहने से वह अपना सिंहत्व-स्वभाव भूल गया तथा भेड़ों के समान 'बे-बे' करने लगा, घास खाने लगा। एक बार जंगल में पानी पीते हुए उसने अपना चेहरा देखा और साथ ही सामने पहाड़ी पर स्थित सिंह को देखा, तो उसमें सोया हुआ सिंहत्व जाग्रत हो गया। वह विभाव से हटकर अपने स्वभाव में स्थित हो गया। उसी प्रकार जब व्यक्ति के मोह का नशा उतर जाता है और मिथ्यात्वरूप विभाव रमणता दूर हो जाती है, तब अमल अखण्ड आत्मस्वरूप अर्थात् स्वस्वरूप की प्राप्ति होती है।"१६६ जिनके लिए अन्य की अपेक्षा नहीं होती है, यही स्वभाव है। ___ यह आत्मा शुद्ध सत्तारूप, स्वरूपवाली, अनन्तज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतचारित्र, अनंतवीर्य इन चार अनंतचतुष्टय वाली स्वरूप की कर्ता स्वरूप का भोक्ता, स्वरूपपरिणामी, असंख्यप्रदेशी, प्रत्येक प्रदेश में अनन्तपर्याय वाली नित्यानित्य ज्ञान स्वभाववाली है। ज्ञानसार में कहा गया है- “निर्मल स्फटिकरत्न की तरह आत्मा सहज ज्ञान-स्वभावी है; किन्तु मूर्ख व्यक्ति पर में स्व रूप का आरोपण करके मोहित होता है।"७° संक्षेप में जैन विचारकों ने आत्मा का लक्षण उपयोग बताया है। यह उपयोग दो प्रकार का होता है - (१) ज्ञानोपयोग (२) दर्शनोपयोग। यहाँ यह भी समझ लेना चाहिए कि आत्मा का स्वभाव ज्ञातादृष्टा होने का है। यद्यपि ज्ञान में ज्ञेय की अपेक्षा होती है, किंत ज्ञाता या दृष्टा स्वभाव में ज्ञेय की अपेक्षा नहीं होती है। वह आत्माश्रित है। आचारांगसूत्र में भी कहा गया है कि जो आत्मा है, वही विज्ञाता है, जो विज्ञाता है, वही आत्मा है। यहाँ यह भी १६६. अज कुलगत केसरी लहे रे निज पद सिंह निहाल निमप्रभुभक्ते भवि लहे रे, आतम शक्ति संभाल। -अजित जिनस्तवन-देवचन्द्र चौबीसी -देवचन्द्र महाराज १७०. निर्मलं स्फटिकस्येव सहज रुपमात्मनः अध्यस्तोपाधि सम्बन्धों जड़स्तत्र विमुह्यति ।।६१।। -मोहत्याग अष्टक -४, ज्ञानसार, उ. यशोविजयजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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