SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 128
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२२ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री १६५ १६६ प्रपंच (संसार) की कल्पना खड़ी होती है। " जब तक जीव का स्त्री पुत्र धन- देह पर ममत्वभाव हे और काम-क्रोधादि कषाय है तब तक वह विभावदशा में ही लीन रहता है। “जन्मांध व्यक्ति को जो वस्तु है, उसे नहीं देख सकता है किंतु ममता से अंध विभाव दशा में भटक रहे व्यक्ति को जो वस्तु नहीं है, वह दिखती है । " ममतांध व्यक्ति द्वारा चर्मचक्षु से देखने पर भी आंतरचक्षु द्वारा उसका दर्शन मलिन अस्पष्ट या विपरित होता है। विभाव परिणाम अनादिकालीन है। कर्मसंग जनित है इसका वियोग उपाय से किया जा सकता है। परमवीर्यस्फुरणा करके यह जीव स्वयं के शुद्ध स्वभाव को प्रकट कर सकता है। आनंदघनजी ने विभावदशा का अत्यंत सुंदर चित्रण किया है - “जिस प्रकार सूरज पूर्व दिशा को त्याग कर पश्चिम दिशा में अनुरक्त होकर अस्त हो जाता है, उसी प्रकार जब आत्मा समतारूपी स्वघर का त्याग करके ममतारूपी परघन में अनुरक्त हो जाती है, तब उसकी शुद्ध स्वाभाविक दशा पर मिथ्यात्वरूपी तम छा जाता है । " आत्मविश्वास में पिछड़े ऐसे बहिरात्मा जीव संसार में दुःखी होने पर भी संसार के भौतिक सुखों में आसक्त रहते हैं। १६७ वे विभाव को ही अपना स्वभाव मान लेते हैं । उपाध्याय यशोविजयजी ने ज्ञानसार में कहा गया है- " आत्मद्रव्य से भिन्न धन-धान्य परिग्रहादिरूप पर उपाधि में ही जिसने पूर्णता मान ली है, वह पूर्णता, मांगकर लाए हुए आभूषणों की शोभा से अपने आपको धनवान् मानने के समान है, जबकि ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप स्वभाव से सिद्ध जो पूर्णता है, वह महारत्न की कांति के समान है।" ,,१६८ १६५. व्याप्नोति महतीं भूमिं वटबीजाद्यथा वटः यथैकममताबीजात् प्रपंचस्यापि कल्पना || ६ || - ममत्व - त्याग अधिकार - अध्यात्मसार - उ. यशोविजयजी १६६. ममनान्धो हि यद्नास्ति, तत्पश्चति न पश्यति। जात्यंधस्तु यदस्त्येतद्भेद इत्यनयोर्महान् । ।१२ ।। - ममत्व - त्याग अधिकार -अध्यात्मसार - उ. यशोविजयजी १६७. बालुडी अबला जोर किसौ करे, पीउड़ो रविअस्तगत थई । पूरबदिसि तजि पश्छिम रातड़ौ रविअस्तगत थई । आनन्दघन ग्रन्थावली पद - ४१ १६८. पूर्णता या परोपाद्येः सा याचितकमण्डनम् । या तु स्वाभाविकी सैव, जात्यरत्नविभानिभा ॥ २ ॥ पूर्णता अष्टक-१, ज्ञानसार, उ. यशोविजयजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy