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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / १२१
इस प्रकार शुद्ध निश्चयनय से देखने पर जीव के स्वयं के यथार्थ शुद्ध स्वरूप का बोध होता है और वर्तमान व्यवहारनय से देखने पर आत्मा के अशुद्ध स्वरूप का बोध होता है। जब व्यक्ति दोनों नयों को स्वीकार करके चलता है, तो वह पुण्य-पाप के फल भोगते हुए भी उसमें आसक्त नहीं होता है । वह सुख में लीन तथा दुःख में दीन नहीं होता है ।
उ. यशोविजयजी ने अध्यात्मसार में एक दृष्टांत दिया है कि “जिस व्यक्ति को तालाब के कम पानी में तैरना नहीं आता है, वह समुद्र को तैरकर सामने किनारे पर पहुँचने की अभिलाषा रखता है, तो यह हास्यास्पद है; उसी प्रकार व्यवहारनय को जाने बिना केवल शुद्ध निश्चयनय की बात करना, यह हास्यास्पद है । ' ।” १६४ दोनों नय मनुष्य की दो आँख के समान हैं, एक ही रथ के दो पहियों के समान हैं, इसलिए जैनदर्शन में व्यवहारनय से आत्मा को कर्मों का तथा स्थूल पदार्थों का कर्त्ता तथा भोक्ता स्वीकार किया गया है तथा निश्चयनय से आत्मा को अपने चिदानंदस्वरूप को भोक्ता कहा गया है।
आत्मा की स्वभावदशा एवं विभावदशा
अध्यात्मवाद की साधना का यदि कोई प्रयोजन है, तो वह विभाव से हटकर स्वभाव में लौटना ही है। जैनधर्म की आध्यात्मिक साधना विभावदशा से स्वभाव की ओर एक यात्रा है। यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है कि स्वभाव और विभाव क्या हैं? आत्मा में पर के निमित्त से जो विकार उत्पन्न होते हैं, या भावों का संक्लेशयुक्त जो परिणमन होता है, वह विभाव कहलाता है। जैनदर्शन में राग-द्वेष तथा क्रोध - मान- माया - लोभ, ममत्व आदि कषाय भावों को वैभाविकदशा के सूचक माना है, क्योंकि एक ओर ये पर की अपेक्षा रखते हैं, तो दूसरी ओर इसके कारण आत्मा का समत्व विचलित होता है; अतः इनको विभाव कहा जाता है । उपाध्याय यशोविजयजी कहते है- "जैसे वट के एक बीज में से उत्पन्न हुआ वटवृक्ष विशाल भूमि में फैल जाता है, उसी प्रकार एक ममतारूपी बीज में से सारे
१६४. व्यवहारविनिष्णातो यो ज्ञीप्सति विनिश्चयम् ।
कासारतरणाशक्तः स तितीर्षति सागरम् ।।१६५ ।। -आत्मनिश्चयाधिकार - अध्यात्मसार - उ. यशोविजयजी
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