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१२० / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
यही बात उ. यशोविजयजी ने भी अध्यात्मसार में कही है कि नैगमनय और व्यवहारनय के अनुसार 'आत्मा कर्म की कर्त्ता है, क्योंकि आत्मा का व्यापार फलपर्यन्त देखने में आता है।' निश्चयनय की दृष्टि से आत्मस्वरूप में विकृति नहीं होती है। जैसे चाँदी में छीप की कल्पना करने से चाँदी छीप नहीं होती है।
आत्मा का भोक्तृत्व
आध्यात्मिक साधना के लिए आत्मा को कर्त्ता मानना आवश्यक है और यदि कर्त्ता मानते हैं, तो उसे भोक्ता भी मानना पड़ेगा, क्योंकि जो कर्म करता है, वही उसके फल का भोक्ता बनता है। जैसे आत्मा का कर्तृत्व कर्मपुद्गलों के निमित्त से सम्भव है, वैसे ही आत्मा का भोक्तृत्व भी कर्मपुद्गलों एवं तज्जन्य शरीर के निमित्त से ही सम्भव है । कर्त्तृत्व और भोक्तृत्व - दोनों ही संसारी जीव में पाए जाते हैं, सिद्ध में नहीं। ऐसा भोक्तृत्व वेदनीय कर्म के कारण ही संभव है, किन्तु इसके अतिरिक्त भी आत्मा को उसके स्वरूप- लक्षण, अर्थात् ज्ञानदर्शन का भोक्ता माना जा सकता है।
उपाध्याय यशोविजयजी कहते हैं
9.
२.
३.
व्यवहारनय से जीव पौद्गलिक कर्मों के फल का भोक्ता है। साथ ही घट, पट आदि पदार्थों का भी भोक्ता है।
अशुद्ध निश्चयनय से कर्मों के विपाक द्वारा प्राप्त सुख और दुःख आदि संवेदनाओं का भोक्ता है।
शुद्ध निश्चयनय से आत्मा चिदानंद स्वभाव का भोक्ता है। यहाँ भोक्तृत्व अर्थ मात्र स्वरूपस्थिति है।
आदिपुराण में कहा गया है कि “परलोक सम्बन्धी पुण्य और पापजन्य फलों की भोक्ता आत्मा है। "
स्वामी कार्तिकेय ने भी आत्मा को कर्म विपाकजन्य सुख - दुख की भोक्ता कहा है।
“नियमसार” एवं “पंचास्तिकाय” में भी व्यवहारनय से आत्मा के कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व को स्वीकार किया गया है। “निश्चयनय की दृष्टि से शुभाशुभ कर्मों का सुख-दुख रूप प्रतिपल का संवेदन आत्मा के स्वभाव से भिन्न है। सुख - दुख पुद्गल के निमित्त से होने वाली आत्मा की वैभाविक पर्याएं हैं। शुद्धात्मा तो उनका साक्षी है, वह तो मात्र दर्शक है । "
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