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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ११६
का स्पष्टीकरण यशोविजयजी ने अध्यात्मवैशारदी टीका में दृष्टान्त द्वारा किया है। "आम्रवृक्ष के ऊपर रही हुई परोपजीवी अमरबेल में जो फल आते हैं, उसका कर्तृत्व बेल में कहलाता है, नहीं कि आम के वृक्ष में, चाहे बेल आम्रवृक्ष पर रहकर अपना भरणपोषण करके जीवन गुजारती हो।"१६२ यहाँ आम्रवृक्ष-आत्मा, परोपजीवी-कर्म बेल के फल-मिथ्यात्व, अविरति, कषाय के रूप में है।
निश्चयनय से कर्म का कर्तृत्व आत्मा में नहीं होता है। कर्म तो आत्मा से भिन्न पुद्गल द्रव्यरूप है, इस कारण से आत्मा वास्तव में कर्म के प्रपंच की कर्ता किस प्रकार हो सकती है। यह आत्मा तो स्वभाव की ही कर्ता है, परभाव का कर्ता नहीं। एकान्तअकर्तृत्ववाद के दोष -
__ "यदि आत्मा अकर्ता है, तो उसे शभाशभ कर्मों के लिए उत्तरदायी भी नहीं मान सकते। उत्तरदायित्व के अभाव में नैतिकता का प्रत्यय अर्थहीन होता है, यदि आत्मा को अकर्ता माना जाए, तो उत्तरदायित्व की व्याख्या संभव नहीं है। शुभाशुभ कर्मों का कर्ता नहीं होने से वह बन्धन में भी नहीं आएगी। “१६३ निष्कर्ष -
जैनदर्शन में कर्तृत्व और अकर्तृत्व के विवाद का समाधान सापेक्ष दृष्टि के आधार पर ही करते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में कहा है - १. व्यवहारदृष्टि की अपेक्षा से आत्मा शरीर के सहयोग से कर्म
की कर्ता है। पर्यायार्थिक निश्चयदृष्टि के अनुसार आत्मा जड़ कर्म की कर्ता नहीं है, वरन् मात्र कर्मपुद्गल के निमित्त से अपने अध्यवसायों का कर्ता है। शुद्ध निश्चयनय अथवा द्रव्यार्थिकनय दृष्टि से आत्मा अकर्ता
१६२. अध्यात्मवैशारदी (अध्यात्मोपनिषद की टीका) -भाग २, मुनि यशोविजयजी १६३. जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन - डॉ. सागरमल जैन
- भाग-२ पृ.२२२
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