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११८/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
विकृति को प्रक्रिया ज्ञाता होने से प्राप्त नहीं होता है, उसी प्रकार आत्मज्ञानी कर्मोदय को भोगते हुए भी उससे बंधन में नहीं आता है। जैसे मंत्रादि के कारण से जिस अग्नि की दाहशक्ति को नष्ट कर दिया है, वह अग्नि जलाती नहीं हैं, उसी प्रकार ज्ञान की शक्ति से उदासीन हुआ चित्त कर्म का उदय होने पर भी आत्मा को बाँधने के लिए समर्थ नहीं है।"१६०
प्रश्न उठता है कि अप्रमत्त को, क्षपकश्रेणी में रहे हुए को, यहाँ तक कि सयोगीकेवली को भी कर्मबंध होता है, ऐसा आगम में बताया है, तो फिर कर्म के उदय में ज्ञानी नए कर्म नहीं बाँधते है यह कैसे संभव है?
___ इसका उत्तर यह है कि आत्मज्ञानी को तेरहवें गुणस्थानक इपिथिक कर्म बंधते हैं, किन्तु ये कर्म स्थिति के अभाव में आत्मा को बाँधते नहीं हैं; इसलिए जिनके मिथ्यात्व, अविरति, कषायों का नाश हो गया है, ऐसे आत्मदर्शी योगी में केवल योग के कारण से ही बंधे हुए कर्म भी विपाकोदय से अपना फल नहीं देते है। योग के कारण से कर्म बंधने पर भी केवल ज्ञानी में कर्मबंध का कर्त्तत्व नहीं होता। जितने अंश में मिथ्यात्व, अविरति, कषायादि की मात्रा कम होती है, उतने ही अंश में व्यवहारनय से आत्मनिष्ठ रूप में स्वीकृत कर्मबंध का कर्तृत्व विलीन हो जाता है। समयसार में कहा गया हैं- “निश्चयनय से आत्मा अपने-आप का कर्ता है और अपने-आप का भोक्ता है, दूसरों का नहीं।"'५
कोई श्रीमंत जब आभूषणादि खरीदता है और उसे पहनता है, तो श्रीमंत में आभूषणादि खरीदने का कर्तृत्व और भोक्तृत्त्व दिखता है, किंतु वास्तव में आभूषण खरीदने का कर्तृत्व उस पुरुष में नहीं, परंतु उसके पास रहे हुए धन में है, इसलिए श्रीमंत जब धनहीन (दरिद्र) होता है, तब बहुमूल्य आभूषण नहीं खरीद सकता है। उसी प्रकार मिथ्यात्व, अविरति और कषाय के कारण से कर्म-बंधन होता है। तब ‘जीव कर्म बांधता है'- ऐसा व्यवहार होता है, परंतु वास्तव में उस कर्मबंध का कर्तृत्व मिथ्यात्व, अविरति, कषाय में रहा हुआ है। जो जीव में कर्मबंध का कर्तृत्व हो, तो सिद्ध भी कर्म बांधे परंतु ऐसा नहीं है, इसलिए कर्मबंध का कर्त्तत्व जीव में नहीं, जीवसंलग्न कर्मोदयजन्य मिथ्यात्व आदि औदायिक भावों में हैं। ये औदायिक भाव कर्म के परिणामरूप हैं, आत्मा के नहीं। इस बात
१६०. विषमश्नम् तथा वैद्यो विक्रियां नोपगच्छति।
कर्मोदये तथा भुंजानोऽपि ज्ञानी न बध्यते।।(३/३०) -अध्यात्मबिन्दु १६१. णिच्छयणयस्स एवं आदा अप्पाणभेव हिं करेदि ।
वेदयदि पुणो तं चेव जाण अत्ता दु अत्ताणं ।। -समयसार -आचार्य कुन्दकुन्द, ३३
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